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(कोई अंतर नहीं)

19:15, 5 जनवरी 2008 के समय का अवतरण

बहुत-बहुत पीछे कोई तो खींच रहा है ।

बहुत-बहुत आगे कोई पर मुझे बुलाता ।

आगे बढ़्ने की चाहत, पर बढ़ता पाता

नहीं । नहीं पीछे ही जाता । सींच रहा है

कौन हृदय को? बीच पड़ा हूँ चौराहे पर ।

सोच रहा हूँ, इतना जीवन व्यर्थ बिताया!

जो गाने थे गीत ज़िन्दगी के गा पाया?

नहीं । और फिर सोच रहा हूँ चौराहे पर ।

आगे-पीछे कहीं नहीं जा पाने का दुख

साल रहा है । इसीलिए मैं मुड़ जाता हूँ ।

एक अलग रस्ते पर चलकर भर जाता हूँ ।

नए-नए अनुभव, जीवन जी पाने का सुख

पाता हूँ । गाता हूँ । हँसता हूँ मैं जाता ।

इस तरह ही चलने की उष्मा हूँ पाता ।


(रचनाकाल : 1990)