"कबीर दोहावली / पृष्ठ २" के अवतरणों में अंतर
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+ | तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर । | ||
+ | तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥ | ||
− | + | आस पराई राख्त, खाया घर का खेत । | |
− | + | औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत ॥ 102 ॥ | |
− | + | सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार । | |
− | + | दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ॥ 103 ॥ | |
− | + | सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय । | |
− | + | सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥ 104 ॥ | |
− | + | बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव । | |
− | + | घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ॥ 105 ॥ | |
− | + | आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय । | |
− | + | सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 106 ॥ | |
− | + | साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय । | |
− | + | आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥ 107 ॥ | |
− | + | घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार । | |
− | + | बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार ॥ 108 ॥ | |
− | + | कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय । | |
− | + | जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 109 ॥ | |
− | + | ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय । | |
− | + | सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय ॥ 110 ॥ | |
− | + | सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार । | |
− | + | होले-होले सुरत में, कहैं कबीर विचार ॥ 111 ॥ | |
− | + | सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल । | |
− | + | कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल ॥ 112 ॥ | |
− | + | जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख । | |
− | + | अनुभव भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख ॥ 113 ॥ | |
− | + | सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर । | |
− | + | जैसा बन है आपना, तैसा बन है और ॥ 114 ॥ | |
− | + | यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो । | |
− | + | बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो ॥ 115 ॥ | |
− | + | जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार । | |
− | + | कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार ॥ 116 ॥ | |
− | + | जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय । | |
− | + | यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥ 117 ॥ | |
− | + | जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार । | |
− | + | जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार ॥ 118 ॥ | |
− | + | कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार । | |
− | + | बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 119 ॥ | |
− | + | लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय । | |
− | + | जीय रही लूटत जम फिरे, मैँढ़ा लुटे कसाय ॥ 120 ॥ | |
− | + | एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार । | |
− | + | है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार ॥ 121 ॥ | |
− | + | जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस । | |
− | + | मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास ॥ 122 ॥ | |
− | + | साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय । | |
− | + | चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय ॥ 123 ॥ | |
− | + | अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान । | |
− | + | हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 124 ॥ | |
− | + | खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह । | |
− | + | आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह ॥ 125 ॥ | |
− | + | लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत । | |
− | + | लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत ॥ 126 ॥ | |
− | + | सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह । | |
− | + | लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख लेह ॥ 127 ॥ | |
− | + | भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग । | |
− | + | भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग ॥ 128 ॥ | |
− | + | गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव । | |
− | + | कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया शुक्देव ॥ 129 ॥ | |
− | + | प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय । | |
− | + | चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय ॥ 130 ॥ | |
− | + | कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह । | |
− | + | भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह ॥ 131 ॥ | |
− | + | साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं । | |
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− | साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं । | + | |
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥ | राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥ | ||
− | केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । | + | केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । |
− | अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥ | + | अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥ |
− | एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय । | + | एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय । |
− | एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ 134 ॥ | + | एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ 134 ॥ |
− | साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध । | + | साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध । |
− | आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ 135 ॥ | + | आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ 135 ॥ |
− | हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप । | + | हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप । |
− | निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥ | + | निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥ |
− | आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत । | + | आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत । |
− | जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥ | + | जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥ |
− | आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय । | + | आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय । |
− | सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 138 ॥ | + | सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 138 ॥ |
− | अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट । | + | अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट । |
− | चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥ | + | चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥ |
− | अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान । | + | अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान । |
− | हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥ | + | हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥ |
− | आस पराई राखता, खाया घर का खेत । | + | आस पराई राखता, खाया घर का खेत । |
− | और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥ | + | और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥ |
− | आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक । | + | आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक । |
− | कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥ 142 ॥ | + | कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥ 142 ॥ |
− | आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद । | + | आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद । |
− | नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥ | + | नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥ |
− | आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । | + | आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । |
− | एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥ | + | एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥ |
− | आया था किस काम को, तू सोया चादर तान । | + | आया था किस काम को, तू सोया चादर तान । |
− | सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥ | + | सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥ |
− | उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय । | + | उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय । |
− | एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥ | + | एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥ |
− | उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय । | + | उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय । |
− | इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥ | + | इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥ |
− | अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय । | + | अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय । |
− | मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥ | + | मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥ |
− | एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार । | + | एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार । |
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥ | है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥ | ||
− | ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए । | + | ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए । |
− | औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥ | + | औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥ |
+ | |||
+ | कबीरा संग्ङति साधु की, जौ की भूसी खाय । | ||
+ | खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय ॥ 151 ॥ | ||
− | + | एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय । | |
− | + | एक से परचे भया, एक बाहे समाय ॥ 152 ॥ | |
− | + | कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय । | |
− | + | अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय ॥ 153 ॥ | |
− | कबीरा | + | कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय । |
− | + | दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय ॥ 154 ॥ | |
− | कबीरा | + | कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय । |
− | + | दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय ॥ 155 ॥ | |
− | कबीरा | + | कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय । |
− | + | होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय ॥ 156 ॥ | |
− | + | को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय । | |
− | + | ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ 157 ॥ | |
− | + | कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान । | |
− | + | जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान ॥ 158 ॥ | |
− | + | काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं । | |
− | + | साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं ॥ 159 ॥ | |
− | + | काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ । | |
− | + | काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥ 160 ॥ | |
− | काल | + | काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय । |
− | + | काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय ॥ 161 ॥ | |
− | + | कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय । | |
− | + | इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय ॥ 162 ॥ | |
− | + | कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार । | |
− | + | साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार ॥ 163 ॥ | |
− | + | कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय । | |
− | + | सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय ॥ 164 ॥ | |
− | + | कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय । | |
− | + | जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ॥ 165 ॥ | |
− | कबीरा | + | कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर । |
− | + | ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर ॥ 166 ॥ | |
− | + | कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह । | |
− | + | देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह ॥ 167 ॥ | |
− | + | करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय । | |
− | + | बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय ॥ 168 ॥ | |
− | + | कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं । | |
− | + | ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं ॥ 169 ॥ | |
− | + | कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार । | |
− | + | एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार ॥ 170 ॥ | |
− | + | कागा काको घन हरे, कोयल काको देय । | |
− | + | मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ॥ 171 ॥ | |
− | + | कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर । | |
− | + | जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर ॥ 172 ॥ | |
− | + | कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि । | |
− | + | विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥ | |
− | कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि । | + | |
− | विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥ | + | |
− | कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ । | + | कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ । |
− | काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥ | + | काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥ |
− | कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय । | + | कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय । |
− | आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥ | + | आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥ |
− | कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव । | + | कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव । |
− | कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥ | + | कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥ |
− | कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा । | + | कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा । |
− | कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥ | + | कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥ |
− | कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय । | + | कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय । |
− | चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥ | + | चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥ |
− | केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । | + | केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । |
− | अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह ॥ 179 ॥ | + | अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह ॥ 179 ॥ |
− | कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार । | + | कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार । |
− | वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 180 ॥ | + | वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 180 ॥ |
− | कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय । | + | कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय । |
− | जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥ | + | जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥ |
− | गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह । | + | गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह । |
− | कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥ | + | कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥ |
− | खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह । | + | खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह । |
− | आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥ | + | आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥ |
− | चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार । | + | चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार । |
− | वाके अग्ङ लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥ | + | वाके अग्ङ लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥ |
− | घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल । | + | घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल । |
− | दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥ | + | दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥ |
− | गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच । | + | गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच । |
− | हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच ॥ 186 ॥ | + | हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच ॥ 186 ॥ |
− | चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय । | + | चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय । |
− | दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥ | + | दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥ |
− | जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी । | + | जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी । |
− | राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥ | + | राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥ |
− | जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव । | + | जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव । |
− | कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव ॥ 189 ॥ | + | कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव ॥ 189 ॥ |
− | जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल । | + | जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल । |
− | तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥ 190 ॥ | + | तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥ 190 ॥ |
− | जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान । | + | जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान । |
− | जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान ॥ 191 ॥ | + | जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान ॥ 191 ॥ |
− | ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं । | + | ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं । |
− | मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥ 192 ॥ | + | मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥ 192 ॥ |
− | जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप । | + | जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप । |
− | पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥ | + | पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥ |
− | जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग । | + | जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग । |
− | कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥ | + | कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥ |
− | जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । | + | जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । |
− | मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 195 ॥ | + | मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 195 ॥ |
− | जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार । | + | जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार । |
− | कबिरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥ | + | कबिरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥ |
− | जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय । | + | जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय । |
− | बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥ | + | बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥ |
− | झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद । | + | झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद । |
− | जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥ | + | जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥ |
− | जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस । | + | जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस । |
− | मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥ | + | मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥ |
− | जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार । | + | जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार । |
− | जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार ॥ 200 ॥ | + | जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार ॥ 200 ॥ |
12:18, 6 अप्रैल 2013 का अवतरण
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥
आस पराई राख्त, खाया घर का खेत ।
औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत ॥ 102 ॥
सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार ।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ॥ 103 ॥
सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय ।
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥ 104 ॥
बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव ।
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ॥ 105 ॥
आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 106 ॥
साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥ 107 ॥
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार ॥ 108 ॥
कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 109 ॥
ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय ।
सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय ॥ 110 ॥
सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार ।
होले-होले सुरत में, कहैं कबीर विचार ॥ 111 ॥
सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल ।
कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल ॥ 112 ॥
जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख ।
अनुभव भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख ॥ 113 ॥
सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर ।
जैसा बन है आपना, तैसा बन है और ॥ 114 ॥
यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो ।
बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो ॥ 115 ॥
जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार ॥ 116 ॥
जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥ 117 ॥
जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार ॥ 118 ॥
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 119 ॥
लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय ।
जीय रही लूटत जम फिरे, मैँढ़ा लुटे कसाय ॥ 120 ॥
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार ॥ 121 ॥
जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास ॥ 122 ॥
साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय ॥ 123 ॥
अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान ।
हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 124 ॥
खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह ।
आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह ॥ 125 ॥
लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत ।
लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत ॥ 126 ॥
सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह ।
लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख लेह ॥ 127 ॥
भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग ।
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग ॥ 128 ॥
गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव ।
कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया शुक्देव ॥ 129 ॥
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय ।
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय ॥ 130 ॥
कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह ।
भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह ॥ 131 ॥
साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं ।
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥
एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय ।
एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ 134 ॥
साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध ।
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ 135 ॥
हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप ।
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥
आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत ।
जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥
आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 138 ॥
अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥
अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान ।
हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥
आस पराई राखता, खाया घर का खेत ।
और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥
आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक ।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥ 142 ॥
आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥
आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥
आया था किस काम को, तू सोया चादर तान ।
सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥
उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय ।
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥
उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय ।
इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय ।
मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए ।
औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥
कबीरा संग्ङति साधु की, जौ की भूसी खाय ।
खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय ॥ 151 ॥
एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय ।
एक से परचे भया, एक बाहे समाय ॥ 152 ॥
कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय ।
अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय ॥ 153 ॥
कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय ।
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय ॥ 154 ॥
कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय ।
दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय ॥ 155 ॥
कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय ।
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय ॥ 156 ॥
को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय ।
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ 157 ॥
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान ॥ 158 ॥
काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं ।
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं ॥ 159 ॥
काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ ।
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥ 160 ॥
काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय ॥ 161 ॥
कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय ।
इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय ॥ 162 ॥
कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार ।
साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार ॥ 163 ॥
कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय ॥ 164 ॥
कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय ।
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ॥ 165 ॥
कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर ।
ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर ॥ 166 ॥
कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह ।
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह ॥ 167 ॥
करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय ।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय ॥ 168 ॥
कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं ।
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं ॥ 169 ॥
कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार ।
एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार ॥ 170 ॥
कागा काको घन हरे, कोयल काको देय ।
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ॥ 171 ॥
कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर ।
जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर ॥ 172 ॥
कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि ।
विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥
कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ ।
काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥
कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय ।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥
कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥
कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह ॥ 179 ॥
कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 180 ॥
कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥
गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह ।
कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥
खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह ।
आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥
चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार ।
वाके अग्ङ लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥
घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल ।
दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥
गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच ।
हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच ॥ 186 ॥
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।
दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥
जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी ।
राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥
जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव ॥ 189 ॥
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥ 190 ॥
जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान ।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान ॥ 191 ॥
ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं ।
मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥ 192 ॥
जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप ।
पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥
जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 195 ॥
जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥
जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय ।
बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥
झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद ।
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥
जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥
जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार ॥ 200 ॥
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