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"पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ - ३" के अवतरणों में अंतर

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फिर भी जलधिक तुम्हा तन पर वैसा ही लहराता है।
 
फिर भी जलधिक तुम्हा तन पर वैसा ही लहराता है।
 
कहाँ कुपित तुम हो पाती हो, कौन दंड वह पाता है॥11॥
 
कहाँ कुपित तुम हो पाती हो, कौन दंड वह पाता है॥11॥
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तप से रीझ देवता बनता है वांछित फल का दाता।
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अपराधी का भी हित करते तुमको है देखा जाता।
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इसीलिए है क्षमा तुम्हारा नाम और तुम हो भारी।
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धा! कहाँ तक कहें तुम्हारी क्षमाशीलता है न्यारी॥12॥
 
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23:07, 3 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण

किसके बहु श्यामायमान वन बन-ठन छटा दिखाते हैं।
नन्दन-वन-समान सब उपवन किसकी बात बनाते हैं।
किसके ह-भ ऊँचे तरु नभ से बातें करते हैं।
कलित किसलयों से लसते हैं, भूरि फलों से भरते है॥6॥

किसकी कलित-भूत लतिकाएँ करती कान्त कलाएँ हैं।
खिला-खिला करके दिल किसकी खिल उठती कलिकाएँ हैं।
किसके सुमन-समूह विकसकर सुमनस-मन को हरते हैं।
सरस सुरभि से भर-भरकर सुरभित दिगन्त को करते हैं॥7॥

आ करके वसंत किसको अनुपम हरियाली देता है।
जन-जन के मन तरु-तन तक को बहु रसमय कर लेता है।
डाल कंठ में विपुल प्रफुल्ल प्रसूनों की मंजुल माला।
किसे पिलाता है सुरपुर की पूत सुरा-पूरित प्यारेला॥8॥

शस्यश्यामला कौन कहाई, रत्न-भरा है किसका तन।
किसमें गड़ा हुआ है वसुधा के अनेक धनदों का धन।
किसकी रज में परम अकिंचन जन कद्बचन पा जाते हैं।
किसके मलिन कारबन कानों में ही मिल पाते हैं॥9॥

सुन्दर तल पर रजत-लीक-सी पल-पल खींचा करती हैं।
किसको सदा सहस्रों नदियाँ जल से सींचा करती हैं।
हैं हीरक-नग-जटित बनाते किसके तन को सब सरवर।
हैं मुक्ता-समूह बरसाते किसपर प्रति वासर निर्झर॥10॥

किसमें कनक-समान कान्तिमय कितने धातु विलसते हैं।
जो कमनीय कामिनी-से ही मानव-मन में बसते हैं।
पारद-सी अपार उपकारक तथा डियम-सी न्यारी।
किसमें है विभूति दिखलाती चित्रा-विचित्र चकितकारी॥11॥

आठ पहर जिनमें सब दिन सोना ही बरसा करता है।
अवलोके जिनकी विभूतियाँ सुरपति तरसा करता है।
रजनी में बहु बिजली-दीपक जिनको दिव्य बनाते हैं।
ऐसे अमरावती-विमोहक नगर कहाँ हम पाते हैं॥12॥

जो है विपुल विभूति-निकेतन रत्नाकर कहलाता है।
नर्त्तन करता है विमुग्ध बन कल-कल नाद सुनाता है।
जो है बहु विचित्रता-संकुल दिव्य दृश्य का धाता है।
किसपर वह उत्ताकल-तरंगाकुल समुद्र लहराता है॥13॥

किसकी हैं विभूतियाँ ऐसी, किसके वैभव ऐसे हैं।
क्यों बतालाऊँ किसी सिध्दि के साधन उसके कैसे हैं।
किसके दिव्य दिवस हैं इतने, इतनी सुन्दर रातें हैं।
बहु विचित्रताओं से विलसित वसुंधरा की बातें हैं॥14॥

क्षमामयी क्षमा
(4)

हैं अनेक गुण तुममें वसुधो! किन्तु क्षमा-गुण है ऐसा।
समय-नयन ने कहीं नहीं अवलोकन कर पाया जैसा।
पद-प्रहार सहती रहती हो, बहु अपमानित होती हो।
नाना दुख भोगती सदा हो, सुख से कभी न सोती हो॥1॥

तुमपर वज्रपात होता है, पत्थर हैं पड़ते रहते।
अग्निदेव भी गात तुम्हारा प्राय: हैं दहते रहते।
सदा पीटते हैं दंडों से, सब दिन खोदा करते हैं।
अवसर पाये तुम्हें बेधा देते जन, अल्प न डरते हैं॥2॥

पेट चीरकर लोग तुम्हा अन्तर्धान को हरते हैं।
सा जीव-जन्तु निज मल से मलिन पूत तन करते हैं।
नींव डालकर, नहर खोद, नर नित्य वेदना देते हैं।
खानें बना-बनाकर गहरी, दिव्य रत्न हर लेते हैं॥3॥

बड़े-बड़े बहु विवर तुम्हा तन में साँप बनाते हैं।
माँद विरचकर मंद जीव अपनी मंदता दिखाते हैं।
बहुधा उर विदारकर बहु वापिका सरोवर बनते हैं।
छेद-छेदकर तव छाती नर कूप सहस्रों खनते हैं॥4॥

बेधा-बेधाकर हृदय बहुत लाइनें निकाली जाती हैं।
दलती मूँग तुम्हारी छाती पर लें दिखलाती हैं।
काले क्वैले के निमित्त बहु गत्ता बनाये जाते हैं।
जिनसे मीलों अंग तुम्हा कालिख-पुते दिखाते हैं॥5॥

ह-भ कुसुमित फल-विलसित नयन-विमोहन बहु-सुन्दर।
नव तृण श्यामल शस्य सरसतम लतिकाएँ अनुपम तरुवर।
जिनका बड़े प्रेम से प्रति दिन तुम प्रतिपालन करती हो।
जिनके तन में, दल में, फल में पल-पल प्रिय रस भरती हो॥6॥

वे हैं अनुदिन नोचे जाते, कटते-पिटते रहते हैं।
निर्दय मानव के हाथों से बड़ी यातना सहते हैं।
फिर भी कभी तुम्हा तेवर बदले नहीं दिखाते हैं।
देती हो तुम त्राकण सभी को, सब तुमसे सुख पाते हैं॥7॥

वे अति सुन्दर नगर जहाँ सुषमाएँ नर्त्तन करती हैं।
जहाँ रमा वैकुण्ठ छोड़कर प्रमुदित बनी विचरती हैं।
सकल स्वर्ग-सुख पाँव तोड़कर बैठे जहाँ दिखाते हैं।
जिनको धन-जनपूर्ण स्वर्ण-मन्दिर से सज्जित पाते हैं॥8॥

ज्वालामुखी उगल ज्वालाएँ उन्हें भस्म कर देता है।
उनको बना भूतिमय उनकी वर विभूति हर लेता है।
पलक मारते तव तन-भूषण मिट्टी में मिल जाते हैं।
फिर भी ये विधवंसक तुममे धाँसते नहीं दिखाते हैं॥9॥

बड़े-बड़े बहु धन-जन-संकुल सुन्दर-सुन्दर देश कई।
जो थे भूति-निकेतन, सुरपुर तक थी जिनकी कीत्तिक गयी।
जो चिरकाल तुम्हा पावन-भूत अंक में पल पाये।
तुम्हें गौरवित करके गौरव-गीत गये जिनके गाये॥10॥

वे हैं कहाँ, उदधिक कितनों को प्राय: निगला करता है।
उसका पेट, पेट में ऐसे देशों को रख, भरता है।
फिर भी जलधिक तुम्हा तन पर वैसा ही लहराता है।
कहाँ कुपित तुम हो पाती हो, कौन दंड वह पाता है॥11॥

तप से रीझ देवता बनता है वांछित फल का दाता।
अपराधी का भी हित करते तुमको है देखा जाता।
इसीलिए है क्षमा तुम्हारा नाम और तुम हो भारी।
धा! कहाँ तक कहें तुम्हारी क्षमाशीलता है न्यारी॥12॥