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दफ़्तर के बाद-१ / रमेश रंजक

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कुछ ऐसा बाँध दिया बंसी मन
कुर्सी के दर्द ने
गुज़रे हम गाते चौराहों से अनमने ।
जाने क्यों कई मर्तबा
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