"माँ की डिग्रियाँ / अशोक कुमार पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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कभी क्रोध, कभी खीझ | कभी क्रोध, कभी खीझ | ||
− | और कभी हताश | + | और कभी हताश रुदन के बीच |
टुकड़े-टुकड़े सुनी बातों को जोड़कर | टुकड़े-टुकड़े सुनी बातों को जोड़कर | ||
धीरे-धीरे बुनी मैंने साड़ी की कहानी | धीरे-धीरे बुनी मैंने साड़ी की कहानी | ||
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चाहतीं तो कालेज में होतीं किसी | चाहतीं तो कालेज में होतीं किसी | ||
हमने तो रोका नहीं कभी | हमने तो रोका नहीं कभी | ||
− | पर घर और | + | पर घर और बच्चे रहे इनकी पहली प्राथमिकता |
इन्हीं के बदौलत तो है यह सब कुछ’ | इन्हीं के बदौलत तो है यह सब कुछ’ | ||
बहुत बाद में बताया नानी ने | बहुत बाद में बताया नानी ने | ||
कि सिर्फ कई रातों की नींद नहीं थी उनकी क़ीमत | कि सिर्फ कई रातों की नींद नहीं थी उनकी क़ीमत | ||
अनेक छोटी-बडी लड़ाईयाँ दफ़्न थीं उन पुराने काग़ज़ों में... | अनेक छोटी-बडी लड़ाईयाँ दफ़्न थीं उन पुराने काग़ज़ों में... | ||
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आठवीं के बाद नहीं था आसपास कोई स्कूल | आठवीं के बाद नहीं था आसपास कोई स्कूल | ||
और पूरा गाँव एकजुट था शहर भेजे जाने के ख़िलाफ़ | और पूरा गाँव एकजुट था शहर भेजे जाने के ख़िलाफ़ | ||
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पर निरक्षर नानी अड़ गई थीं चट्टान-सी | पर निरक्षर नानी अड़ गई थीं चट्टान-सी | ||
और झुकना पड़ा था नाना को पहली बार | और झुकना पड़ा था नाना को पहली बार | ||
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अन्न-जल तो ख़ैर कितने दिन त्यागते | अन्न-जल तो ख़ैर कितने दिन त्यागते | ||
− | पर गाँव की उस पहली | + | पर गाँव की उस पहली ग्रेजुएट का |
फिर मुँह तक नहीं देखा दादा ने | फिर मुँह तक नहीं देखा दादा ने | ||
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डिग्रियों से याद आया | डिग्रियों से याद आया | ||
ननिहाल की बैठक में टँगा | ननिहाल की बैठक में टँगा | ||
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कॉलेज के चहचहाते लेक्चर थियेटर में | कॉलेज के चहचहाते लेक्चर थियेटर में | ||
तमाम हम-उम्रों के बीच कैसी लगती होगी वह लड़की ? | तमाम हम-उम्रों के बीच कैसी लगती होगी वह लड़की ? | ||
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क्या सोचती होगी रात के तीसरे पहर में | क्या सोचती होगी रात के तीसरे पहर में | ||
− | इतिहास के पन्ने पलटते हुए ? | + | इतिहास के पन्ने पलटते हुए? |
क्या उसके आने के भी ठीक पहले तक | क्या उसके आने के भी ठीक पहले तक | ||
− | कालेज की चहारदीवारी पर बैठा कोई करता होगा इंतजार ? | + | कालेज की चहारदीवारी पर बैठा कोई करता होगा इंतजार? |
(जैसे मैं करता था तुम्हारा) | (जैसे मैं करता था तुम्हारा) | ||
क्या उसकी क़िताबों में भी कोई रख जाता होगा कोई | क्या उसकी क़िताबों में भी कोई रख जाता होगा कोई | ||
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हमारी ही तरह धड़कता होगा उसका दिल? | हमारी ही तरह धड़कता होगा उसका दिल? | ||
और अगली रात पंख लगाए डिग्रियों के उड़ता होगा उन्मुक्त... | और अगली रात पंख लगाए डिग्रियों के उड़ता होगा उन्मुक्त... | ||
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जबकि तमाम दूसरी लड़कियों की तरह एहसास होगा ही उसे | जबकि तमाम दूसरी लड़कियों की तरह एहसास होगा ही उसे | ||
अपनी उम्र के साथ गहराती जा रही पिता की चिन्ताओं का | अपनी उम्र के साथ गहराती जा रही पिता की चिन्ताओं का | ||
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या सचमुच इतनी सम्मोहक होती है | या सचमुच इतनी सम्मोहक होती है | ||
मंगलसूत्र की चमक और सोहर की खनक कि | मंगलसूत्र की चमक और सोहर की खनक कि | ||
− | आँखों में जगह ही न बचे किसी अन्य दृश्य के लिए ? | + | आँखों में जगह ही न बचे किसी अन्य दृश्य के लिए? |
पूछ तो नहीं सका कभी | पूछ तो नहीं सका कभी | ||
पर प्रेम के एक भरपूर दशक के बाद | पर प्रेम के एक भरपूर दशक के बाद |
18:37, 29 मई 2020 का अवतरण
घर के सबसे उपेक्षित कोने में
बरसों पुराना जंग खाया बक्सा है एक
जिसमें तमाम इतिहास बन चुकी चीजों के साथ
मथढक्की की साड़ी के नीचे
पैंतीस सालों से दबा पड़ा है
माँ की डिग्रियों का एक पुलिन्दा
बचपन में अक्सर देखा है माँ को
दोपहर के दुर्लभ एकांत में
बतियाते बक्से से
किसी पुरानी सखी की तरह
मरे हुए चूहे-सी एक ओर कर देतीं
वह चटख पीली लेकिन उदास साड़ी
और फिर हमारे ज्वरग्रस्त माथों-सा
देर तक सहलाती रहतीं वह पुलिंदा
कभी क्रोध, कभी खीझ
और कभी हताश रुदन के बीच
टुकड़े-टुकड़े सुनी बातों को जोड़कर
धीरे-धीरे बुनी मैंने साड़ी की कहानी
कि कैसे ठीक उस रस्म के पहले
घण्टों चीख़ते रहे थे बाबा
और नाना बस खड़े रह गए थे हाथ जोड़कर
माँ ने पहली बार देखे थे उन आँखों में आँसू
और फिर रोती रही थीं बरसों
अक्सर कहतीं यही पहनाकर भेजना चिता पर
और पिता बस मुस्कुराकर रह जाते...
डिग्रियों के बारे में तो चुप ही रहीं माँ
बस एक उकताई-सी मुस्कुराहट पसर जाती आँखों में
जब पिता किसी नए मेहमान के सामने दुहराते
’उस ज़माने की एम० ए० हैं साहब
चाहतीं तो कालेज में होतीं किसी
हमने तो रोका नहीं कभी
पर घर और बच्चे रहे इनकी पहली प्राथमिकता
इन्हीं के बदौलत तो है यह सब कुछ’
बहुत बाद में बताया नानी ने
कि सिर्फ कई रातों की नींद नहीं थी उनकी क़ीमत
अनेक छोटी-बडी लड़ाईयाँ दफ़्न थीं उन पुराने काग़ज़ों में...
आठवीं के बाद नहीं था आसपास कोई स्कूल
और पूरा गाँव एकजुट था शहर भेजे जाने के ख़िलाफ़
उनके दादा ने तो त्याग ही दिया था अन्न-जल
पर निरक्षर नानी अड़ गई थीं चट्टान-सी
और झुकना पड़ा था नाना को पहली बार
अन्न-जल तो ख़ैर कितने दिन त्यागते
पर गाँव की उस पहली ग्रेजुएट का
फिर मुँह तक नहीं देखा दादा ने
डिग्रियों से याद आया
ननिहाल की बैठक में टँगा
वह धूल-धूसरित चित्र
जिसमें काली टोपी लगाए
लम्बे से चोगे में
बेटन-सी थामे हुए डिग्री
माँ जैसी शक्लोसूरत वाली एक लड़की मुस्कुराती रहती है
माँ के चेहरे पर तो कभी नहीं देखी वह अलमस्त मुस्कान
कॉलेज के चहचहाते लेक्चर थियेटर में
तमाम हम-उम्रों के बीच कैसी लगती होगी वह लड़की ?
क्या सोचती होगी रात के तीसरे पहर में
इतिहास के पन्ने पलटते हुए?
क्या उसके आने के भी ठीक पहले तक
कालेज की चहारदीवारी पर बैठा कोई करता होगा इंतजार?
(जैसे मैं करता था तुम्हारा)
क्या उसकी क़िताबों में भी कोई रख जाता होगा कोई
सपनों का महकता गुलाब?
परिणामों के ठीक पहले वाली रात क्या
हमारी ही तरह धड़कता होगा उसका दिल?
और अगली रात पंख लगाए डिग्रियों के उड़ता होगा उन्मुक्त...
जबकि तमाम दूसरी लड़कियों की तरह एहसास होगा ही उसे
अपनी उम्र के साथ गहराती जा रही पिता की चिन्ताओं का
तो क्या परीक्षा के बाद क़िताबों के साथ
ख़ुद ही समेटने लगी होगी स्वप्न?
या सचमुच इतनी सम्मोहक होती है
मंगलसूत्र की चमक और सोहर की खनक कि
आँखों में जगह ही न बचे किसी अन्य दृश्य के लिए?
पूछ तो नहीं सका कभी
पर प्रेम के एक भरपूर दशक के बाद
कह सकता हूँ पूरे विश्वास से
कि उस चटख़ पीली लेकिन उदास साडी के नीचे
दब जाने के लिए नहीं थीं
उस लड़की की डिग्रियाँ !!!