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"लड़की / अंजू शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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एक दिन समटते हुए अपने खालीपन को
 
एक दिन समटते हुए अपने खालीपन को
 
मैंने ढूँढा था उस लड़की को,
 
मैंने ढूँढा था उस लड़की को,
 
 
जो भागती थी तितलियों के पीछे
 
जो भागती थी तितलियों के पीछे
 
 
सँभालते हुए अपने दुपट्टे को
 
सँभालते हुए अपने दुपट्टे को
 
 
फिर खो जाया करती थी  
 
फिर खो जाया करती थी  
 
 
किताबों के पीछे,
 
किताबों के पीछे,
 
  
 
गुनगुनाते हुए ग़ालिब की कोई ग़ज़ल
 
गुनगुनाते हुए ग़ालिब की कोई ग़ज़ल
 
 
अक्सर मिल जाती थी वो लाईब्ररी में,
 
अक्सर मिल जाती थी वो लाईब्ररी में,
 
 
कभी पाई जाती थी घर के बरामदे में  
 
कभी पाई जाती थी घर के बरामदे में  
 
 
बतियाते हुए प्रेमचंद और शेक्सपियर से,
 
बतियाते हुए प्रेमचंद और शेक्सपियर से,
 
  
 
कभी बारिश में तलते पकौड़ों  
 
कभी बारिश में तलते पकौड़ों  
 
 
को छोड़कर
 
को छोड़कर
 
 
खुले हाथों से छूती थी आसमान,
 
खुले हाथों से छूती थी आसमान,
 
 
और जोर से सांस खींचते हुए
 
और जोर से सांस खींचते हुए
 
 
समो लेना चाहती थी पहली बारिश
 
समो लेना चाहती थी पहली बारिश
 
 
में महकती सोंधी मिटटी की खुशबू,
 
में महकती सोंधी मिटटी की खुशबू,
 
  
 
उसकी किताबों में रखे
 
उसकी किताबों में रखे
 
 
सूखे फूल महका करते थे
 
सूखे फूल महका करते थे
 
 
उसके अल्फाज़ की महक से,
 
उसके अल्फाज़ की महक से,
 
 
और शब्द उसके इर्द-गिर्द नाचते
 
और शब्द उसके इर्द-गिर्द नाचते
 
 
रच देते थे एक तिलिस्म  
 
रच देते थे एक तिलिस्म  
 
 
और भर दिया करते थे  
 
और भर दिया करते थे  
 
 
उसकी डायरी के पन्ने,
 
उसकी डायरी के पन्ने,
 
  
 
दोस्तों की महफ़िल छोड़  
 
दोस्तों की महफ़िल छोड़  
 
 
छत पर निहारती थी वो
 
छत पर निहारती थी वो
 
 
बादल और बनाया करती थी
 
बादल और बनाया करती थी
 
 
उनमें अनगिनित शक्लें,
 
उनमें अनगिनित शक्लें,
 
 
तब उसकी उंगलियाँ अक्सर
 
तब उसकी उंगलियाँ अक्सर
 
 
मुंडेर पर लिखा करती थी कोई नाम,
 
मुंडेर पर लिखा करती थी कोई नाम,
 
  
 
उसकी चुप्पी को लोग क्यों
 
उसकी चुप्पी को लोग क्यों
 
 
नहीं पढ़ पाते थे उसे परवाह नहीं थी,
 
नहीं पढ़ पाते थे उसे परवाह नहीं थी,
 
 
हाँ, क्योंकि उसे जानते थे
 
हाँ, क्योंकि उसे जानते थे
 
 
ध्रुव तारा, चाँद और सितारे,
 
ध्रुव तारा, चाँद और सितारे,
 
  
 
फिर एक दिन वो लड़की कहीं
 
फिर एक दिन वो लड़की कहीं
 
 
खो गयी
 
खो गयी
 
 
सोचती हूँ क्या अब भी उसे प्यार  
 
सोचती हूँ क्या अब भी उसे प्यार  
 
 
है किताबों से
 
है किताबों से
 
 
क्या अब भी लुभाते हैं उसे नाचते अक्षर,
 
क्या अब भी लुभाते हैं उसे नाचते अक्षर,
 
 
क्या अब भी गुनगुनाती है वो ग़ज़लें,
 
क्या अब भी गुनगुनाती है वो ग़ज़लें,
 
  
 
कभी मिले तो पूछियेगा उससे
 
कभी मिले तो पूछियेगा उससे
 
 
और कहियेगा कि उसके झोले में
 
और कहियेगा कि उसके झोले में
 
 
रखे रंग और ब्रुश अब सूख गए हैं
 
रखे रंग और ब्रुश अब सूख गए हैं
 
 
और पीले पड़ गए हैं गोर्की की
 
और पीले पड़ गए हैं गोर्की की
 
 
किताब  के पन्ने,
 
किताब  के पन्ने,
 
 
देवदास और पारो अक्सर उसे  
 
देवदास और पारो अक्सर उसे  
 
 
याद करते हैं
 
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कहते हैं वो मेरी हमशकल थी
कहते हैं वो मेरी हमशकल थी....
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17:38, 20 मई 2012 के समय का अवतरण

एक दिन समटते हुए अपने खालीपन को
मैंने ढूँढा था उस लड़की को,
जो भागती थी तितलियों के पीछे
सँभालते हुए अपने दुपट्टे को
फिर खो जाया करती थी
किताबों के पीछे,

गुनगुनाते हुए ग़ालिब की कोई ग़ज़ल
अक्सर मिल जाती थी वो लाईब्ररी में,
कभी पाई जाती थी घर के बरामदे में
बतियाते हुए प्रेमचंद और शेक्सपियर से,

कभी बारिश में तलते पकौड़ों
को छोड़कर
खुले हाथों से छूती थी आसमान,
और जोर से सांस खींचते हुए
समो लेना चाहती थी पहली बारिश
में महकती सोंधी मिटटी की खुशबू,

उसकी किताबों में रखे
सूखे फूल महका करते थे
उसके अल्फाज़ की महक से,
और शब्द उसके इर्द-गिर्द नाचते
रच देते थे एक तिलिस्म
और भर दिया करते थे
उसकी डायरी के पन्ने,

दोस्तों की महफ़िल छोड़
छत पर निहारती थी वो
बादल और बनाया करती थी
उनमें अनगिनित शक्लें,
तब उसकी उंगलियाँ अक्सर
मुंडेर पर लिखा करती थी कोई नाम,

उसकी चुप्पी को लोग क्यों
नहीं पढ़ पाते थे उसे परवाह नहीं थी,
हाँ, क्योंकि उसे जानते थे
ध्रुव तारा, चाँद और सितारे,

फिर एक दिन वो लड़की कहीं
खो गयी
सोचती हूँ क्या अब भी उसे प्यार
है किताबों से
क्या अब भी लुभाते हैं उसे नाचते अक्षर,
क्या अब भी गुनगुनाती है वो ग़ज़लें,

कभी मिले तो पूछियेगा उससे
और कहियेगा कि उसके झोले में
रखे रंग और ब्रुश अब सूख गए हैं
और पीले पड़ गए हैं गोर्की की
किताब के पन्ने,
देवदास और पारो अक्सर उसे
याद करते हैं

कहते हैं वो मेरी हमशकल थी