"माँ का दर्द.../ भावना कुँअर" के अवतरणों में अंतर
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जो थमने का नाम ही नहीं लेते... | जो थमने का नाम ही नहीं लेते... |
17:42, 26 जून 2017 के समय का अवतरण
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क्या लिखूँ?
समझ नहीं आता
कलम है जो रुक-रुक जाती है...
और आँसू
जो थमने का नाम ही नहीं लेते...
एक हूक सी
मन में उठती है...
और आँसुओं का सैलाब फैलाकर
सिमट जाती है
अपने दायरे में...
नश्तर चुभोती है
और दर्द को दुगना कर
छिपकर एक कोने में बैठ जाती है
अगली बार उठने के लिए...
क्या दर्द की ये लहर
नहीं झिंझोड़ देती
हर माँ का अस्तित्व?
जिनकी नन्हीं जान
दूर हो जाती है उनके कलेजे से...
क्या अनचाहा दर्द
बन नहीं जाता माँ की तकदीर?
क्या जीना मुहाल नहीं हो जाता?
और क्या उसका सपना
आँखों को धुँधला नहीं कर जाता?
कैसे रहती है वो जिंदा
बस वही जानती है...
लोगों का क्या
वो तो सांत्वना देकर
चले जाते हैं अपनी राह...
पर माँ अकेली एकदम तन्हाँ
किसी उम्मीद के सहारे
बिना किसी से कुछ कहे
जी जाती है अपना पूरा जीवन...