भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 1" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 12: पंक्ति 12:
 
हो चुकी पूर्ण योजना नियती की सारी,
 
हो चुकी पूर्ण योजना नियती की सारी,
 
कल ही होगा आरम्भ समर अति भारी.
 
कल ही होगा आरम्भ समर अति भारी.
 
  
 
कल जैसे ही पहली मरीचि फूटेगी,
 
कल जैसे ही पहली मरीचि फूटेगी,
पंक्ति 18: पंक्ति 17:
 
संहार मचेगा, तिमिर घोर छायेगा,
 
संहार मचेगा, तिमिर घोर छायेगा,
 
सारा समाज दृगवंचित हो जायेगा.
 
सारा समाज दृगवंचित हो जायेगा.
 
  
 
जन-जन स्वजनों के लिए कुटिल यम होगा,
 
जन-जन स्वजनों के लिए कुटिल यम होगा,
पंक्ति 24: पंक्ति 22:
 
कल से भाई, भाई के प्राण हरेंगे,
 
कल से भाई, भाई के प्राण हरेंगे,
 
नर ही नर के शोणित में स्नान करेंगे.
 
नर ही नर के शोणित में स्नान करेंगे.
 
  
 
सुध-बुध खो, बैठी हुई समर-चिंतन में,
 
सुध-बुध खो, बैठी हुई समर-चिंतन में,
पंक्ति 30: पंक्ति 27:
 
'हे राम! नहीं क्या यह संयोग हटेगा?
 
'हे राम! नहीं क्या यह संयोग हटेगा?
 
सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटेगा?
 
सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटेगा?
 
  
 
'एक ही गोद के लाल, कोख के भाई,
 
'एक ही गोद के लाल, कोख के भाई,
पंक्ति 36: पंक्ति 32:
 
सत्य ही, कर्ण अनुजों के प्राण हरेगा,
 
सत्य ही, कर्ण अनुजों के प्राण हरेगा,
 
अथवा, अर्जुन के हाथों स्वयं मरेगा?
 
अथवा, अर्जुन के हाथों स्वयं मरेगा?
 
  
 
दो में जिसका उर फटे, फटूँगी मैं ही,
 
दो में जिसका उर फटे, फटूँगी मैं ही,
पंक्ति 43: पंक्ति 38:
 
बरसेंगें किस पर मुझे छोड़ अंगारे?
 
बरसेंगें किस पर मुझे छोड़ अंगारे?
  
 +
'भगवान! सुनेगा कथा कौन यह मेरी?
 +
समझेगा जग में व्यथा कौन यह मेरी?
 +
हे राम! निरावृत किये बिना व्रीडा को,
 +
है कौन, हरेगा जो मेरी पीड़ा को?
  
चींताकुल उलझी हुई व्यथा में, मन से,
+
गांधारी महिमामयी, भीष्म गुरुजन हैं,
 +
धृतराष्ट्र खिन्न, जग से हो रहे विमन हैं.
 +
तब भी उनसे कहूँ, करेंगे क्या वे?
 +
मेरी मणि मेरे हाथ धरेंगे क्या वे?
 +
 
 +
यदि कहूँ युधिष्ठिर से यह मलिन कहानी,
 +
गल कर रह जाएगा वह भावुक ज्ञानी.
 +
तो चलूँ कर्ण से हीं मिलकर बात करूँ मैं
 +
सामने उसी के अंतर खोल धरून मैं.
 +
 
 +
लेकिन कैसे उसके सम्मुख जाऊँगी?
 +
किस तरह उसे अपना मुख दिखलाउंगी?
 +
माँगता विकल हो वस्तु आज जो मन है
 +
बीता विरुद्ध उसके समग्र जीवन है.
 +
 
 +
क्या समाधान होगा दुष्कृति के कर्म का?
 +
उत्तर दूंगी क्या, निज आचरण विषम का?
 +
किस तरह कहूँगी-पुत्र! गोद में आ तू,
 +
इस जननी पाषाणी का ह्रदय जुड़ा तू?'
 +
 
 +
चिंताकुल उलझी हुई व्यथा में, मन से,
 
बाहर आई कुंती, कढ़ विदुर भवन से.
 
बाहर आई कुंती, कढ़ विदुर भवन से.
 
सामने तपन को देख, तनिक घबरा कर,
 
सामने तपन को देख, तनिक घबरा कर,
 
 
सितकेशी, संभ्रममयी चली सकुचा कर.
 
सितकेशी, संभ्रममयी चली सकुचा कर.
 +
 
उड़ती वितर्क-धागे पर, चंग-सरीखी,
 
उड़ती वितर्क-धागे पर, चंग-सरीखी,
 
सुधियों की सहती चोट प्राण पर तीखी.
 
सुधियों की सहती चोट प्राण पर तीखी.
 
आशा-अभिलाषा-भारी, डरी, भरमायी,
 
आशा-अभिलाषा-भारी, डरी, भरमायी,
 
 
कुंती ज्यों-त्यों जाह्नवी-तीर पर आयी.
 
कुंती ज्यों-त्यों जाह्नवी-तीर पर आयी.
 +
 
दिनमणि पश्चिम की ओर क्षितिज के ऊपर,
 
दिनमणि पश्चिम की ओर क्षितिज के ऊपर,
 
थे घट उंड़ेलते खड़े कनक के भू पर.
 
थे घट उंड़ेलते खड़े कनक के भू पर.
 
लालिमा बहा अग-अग को नहलाते थे,
 
लालिमा बहा अग-अग को नहलाते थे,
 
खुद भी लज्जा से लाल हुए जाते थे.
 
खुद भी लज्जा से लाल हुए जाते थे.
 
  
 
राधेय सांध्य-पूजन में ध्यान लगाये,
 
राधेय सांध्य-पूजन में ध्यान लगाये,
पंक्ति 64: पंक्ति 82:
 
तन में रवि का अप्रतिम तेज जगता था,
 
तन में रवि का अप्रतिम तेज जगता था,
 
दीपक ललाट अपरार्क-सदृश लगता था.
 
दीपक ललाट अपरार्क-सदृश लगता था.
 +
 
मानो, युग-स्वर्णिम-शिखर-मूल में आकर,
 
मानो, युग-स्वर्णिम-शिखर-मूल में आकर,
 
हो बैठ गया सचमुच ही, सिमट विभाकर.
 
हो बैठ गया सचमुच ही, सिमट विभाकर.
 
अथवा मस्तक पर अरुण देवता को ले,
 
अथवा मस्तक पर अरुण देवता को ले,
 
हो खड़ा तीर पर गरुड़ पंख निज खोले.
 
हो खड़ा तीर पर गरुड़ पंख निज खोले.
 
  
 
या दो अर्चियाँ विशाल पुनीत अनल की,
 
या दो अर्चियाँ विशाल पुनीत अनल की,
पंक्ति 74: पंक्ति 92:
 
अथवा अगाध कंचन में कहीं नहा कर,
 
अथवा अगाध कंचन में कहीं नहा कर,
 
मैनाक-शैल हो खड़ा बाहु फैला कर.
 
मैनाक-शैल हो खड़ा बाहु फैला कर.
 
  
 
सुत की शोभा को देख मोद में फूली,
 
सुत की शोभा को देख मोद में फूली,

14:32, 24 जून 2013 के समय का अवतरण

आ गया काल विकराल शान्ति के क्षय का,
निर्दिष्ट लग्न धरती पर खंड-प्रलय का.
हो चुकी पूर्ण योजना नियती की सारी,
कल ही होगा आरम्भ समर अति भारी.

कल जैसे ही पहली मरीचि फूटेगी,
रण में शर पर चढ़ महामृत्यु छूटेगी.
संहार मचेगा, तिमिर घोर छायेगा,
सारा समाज दृगवंचित हो जायेगा.

जन-जन स्वजनों के लिए कुटिल यम होगा,
परिजन, परिजन के हित कृतान्त-सम होगा.
कल से भाई, भाई के प्राण हरेंगे,
नर ही नर के शोणित में स्नान करेंगे.

सुध-बुध खो, बैठी हुई समर-चिंतन में,
कुंती व्याकुल हो उठी सोच कुछ मन में.
'हे राम! नहीं क्या यह संयोग हटेगा?
सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटेगा?

'एक ही गोद के लाल, कोख के भाई,
सत्य ही, लड़ेंगे हो, दो ओर लड़ाई?
सत्य ही, कर्ण अनुजों के प्राण हरेगा,
अथवा, अर्जुन के हाथों स्वयं मरेगा?

दो में जिसका उर फटे, फटूँगी मैं ही,
जिसकी भी गर्दन कटे, कटूँगी मैं ही,
पार्थ को कर्ण, या पार्थ कर्ण को मारे,
बरसेंगें किस पर मुझे छोड़ अंगारे?

'भगवान! सुनेगा कथा कौन यह मेरी?
समझेगा जग में व्यथा कौन यह मेरी?
हे राम! निरावृत किये बिना व्रीडा को,
है कौन, हरेगा जो मेरी पीड़ा को?

गांधारी महिमामयी, भीष्म गुरुजन हैं,
धृतराष्ट्र खिन्न, जग से हो रहे विमन हैं.
तब भी उनसे कहूँ, करेंगे क्या वे?
मेरी मणि मेरे हाथ धरेंगे क्या वे?

यदि कहूँ युधिष्ठिर से यह मलिन कहानी,
गल कर रह जाएगा वह भावुक ज्ञानी.
तो चलूँ कर्ण से हीं मिलकर बात करूँ मैं
सामने उसी के अंतर खोल धरून मैं.

लेकिन कैसे उसके सम्मुख जाऊँगी?
किस तरह उसे अपना मुख दिखलाउंगी?
माँगता विकल हो वस्तु आज जो मन है
बीता विरुद्ध उसके समग्र जीवन है.

क्या समाधान होगा दुष्कृति के कर्म का?
उत्तर दूंगी क्या, निज आचरण विषम का?
किस तरह कहूँगी-पुत्र! गोद में आ तू,
इस जननी पाषाणी का ह्रदय जुड़ा तू?'

चिंताकुल उलझी हुई व्यथा में, मन से,
बाहर आई कुंती, कढ़ विदुर भवन से.
सामने तपन को देख, तनिक घबरा कर,
सितकेशी, संभ्रममयी चली सकुचा कर.

उड़ती वितर्क-धागे पर, चंग-सरीखी,
सुधियों की सहती चोट प्राण पर तीखी.
आशा-अभिलाषा-भारी, डरी, भरमायी,
कुंती ज्यों-त्यों जाह्नवी-तीर पर आयी.

दिनमणि पश्चिम की ओर क्षितिज के ऊपर,
थे घट उंड़ेलते खड़े कनक के भू पर.
लालिमा बहा अग-अग को नहलाते थे,
खुद भी लज्जा से लाल हुए जाते थे.

राधेय सांध्य-पूजन में ध्यान लगाये,
था खड़ा विमल जल में, युग बाहु उठाये.
तन में रवि का अप्रतिम तेज जगता था,
दीपक ललाट अपरार्क-सदृश लगता था.

मानो, युग-स्वर्णिम-शिखर-मूल में आकर,
हो बैठ गया सचमुच ही, सिमट विभाकर.
अथवा मस्तक पर अरुण देवता को ले,
हो खड़ा तीर पर गरुड़ पंख निज खोले.

या दो अर्चियाँ विशाल पुनीत अनल की,
हों सजा रही आरती विभा-मण्डल की,
अथवा अगाध कंचन में कहीं नहा कर,
मैनाक-शैल हो खड़ा बाहु फैला कर.

सुत की शोभा को देख मोद में फूली,
कुंती क्षण-भर को व्यथा-वेदना भूली.
भर कर ममता-पय से निष्पलक नयन को,
वह खड़ी सींचती रही पुत्र के तन को