"रश्मिरथी / षष्ठ सर्ग / भाग 3" के अवतरणों में अंतर
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+ | द्वापर की कथा बड़ी दारूण, | ||
+ | लेकिन, कलि ने क्या दान दिया ? | ||
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+ | पर, हाँ, जो युद्ध स्वर्गमुख था, | ||
+ | वह आज निन्द्य-सा लगता है। | ||
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+ | धीमी कितनी गति है ? विकास | ||
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+ | थे जहाँ सहस्त्रों वर्ष पूर्व, | ||
+ | लगता है वहीं खड़े हैं हम। | ||
+ | है वृथा वर्ग, उन गुफावासियों से | ||
+ | कुछ बहुत बड़े हैं हम। | ||
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+ | अनगढ़ पत्थर से लड़ो, लड़ो | ||
+ | किटकिटा नखों से, दाँतों से, | ||
+ | या लड़ो ऋक्ष के रोमगुच्छ-पूरित | ||
+ | वज्रीकृत हाथों से; | ||
+ | या चढ़ विमान पर नर्म मुट्ठियों से | ||
+ | गोलों की वृष्टि करो, | ||
+ | आ जाय लक्ष्य में जो कोई, | ||
+ | निष्ठुर हो सबके प्राण हरो। | ||
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+ | ये तो साधन के भेद, किन्तु | ||
+ | भावों में तत्व नया क्या है ? | ||
+ | क्या खुली प्रेम आँख अधिक ? | ||
+ | भतीर कुछ बढ़ी दया क्या है ? | ||
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+ | झर गयी पूँछ, रोमान्त झरे, | ||
+ | पशुता का झरना बाकी है; | ||
+ | बाहर-बाहर तन सँवर चुका, | ||
+ | मन अभी सँवरना बाकी है। | ||
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+ | देवत्व अल्प, पशुता अथोर, | ||
+ | तमतोम प्रचुर, परिमित आभा, | ||
+ | द्वापर के मन पर भी प्रसरित | ||
+ | थी यही, आज वाली, द्वाभा। | ||
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+ | बस, इसी तरह, तब भी ऊपर | ||
+ | उठने को नर अकुलाता था, | ||
+ | पर पद-पद पर वासना-जाल में | ||
+ | उलझ-उलझ रह जाता था। | ||
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11:48, 27 जुलाई 2012 के समय का अवतरण
पर, नहीं, विश्व का अहित नहीं
होता क्या ऐसा कहने से ?
प्रतिकार अनय का हो सकता।
क्या उसे मौन हो सहने से ?
क्या वही धर्म, लौ जिसकी
दो-एक मनों में जलती है।
या वह भी जो भावना सभी
के भीतर छिपी मचलती है।
सबकी पीड़ा के साथ व्यथा
अपने मन की जो जोड़ सके,
मुड़ सके जहाँ तक समय, उसे
निर्दिष्ट दिशा में मोड़ सके।
युगपुरूष वही सारे समाज का
विहित धर्मगुरू होता है,
सबके मन का जो अन्धकार
अपने प्रकाश से धोता है।
द्वापर की कथा बड़ी दारूण,
लेकिन, कलि ने क्या दान दिया ?
नर के वध की प्रक्रिया बढ़ी
कुछ और उसे आसान किया।
पर, हाँ, जो युद्ध स्वर्गमुख था,
वह आज निन्द्य-सा लगता है।
बस, इसी मन्दता के विकास का
भाव मनुज में जगता है।
धीमी कितनी गति है ? विकास
कितना अदृश्य हो चलता है ?
इस महावृक्ष में एक पत्र
सदियों के बाद निकलता है।
थे जहाँ सहस्त्रों वर्ष पूर्व,
लगता है वहीं खड़े हैं हम।
है वृथा वर्ग, उन गुफावासियों से
कुछ बहुत बड़े हैं हम।
अनगढ़ पत्थर से लड़ो, लड़ो
किटकिटा नखों से, दाँतों से,
या लड़ो ऋक्ष के रोमगुच्छ-पूरित
वज्रीकृत हाथों से;
या चढ़ विमान पर नर्म मुट्ठियों से
गोलों की वृष्टि करो,
आ जाय लक्ष्य में जो कोई,
निष्ठुर हो सबके प्राण हरो।
ये तो साधन के भेद, किन्तु
भावों में तत्व नया क्या है ?
क्या खुली प्रेम आँख अधिक ?
भतीर कुछ बढ़ी दया क्या है ?
झर गयी पूँछ, रोमान्त झरे,
पशुता का झरना बाकी है;
बाहर-बाहर तन सँवर चुका,
मन अभी सँवरना बाकी है।
देवत्व अल्प, पशुता अथोर,
तमतोम प्रचुर, परिमित आभा,
द्वापर के मन पर भी प्रसरित
थी यही, आज वाली, द्वाभा।
बस, इसी तरह, तब भी ऊपर
उठने को नर अकुलाता था,
पर पद-पद पर वासना-जाल में
उलझ-उलझ रह जाता था।