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"आकृति / नीना कुमार" के अवतरणों में अंतर

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जो कभी स्वर ले ना पाई अभिव्यक्ति क्या तुम ही थे
 
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सदा से बनती बिगड़ती, कभी मिटती, कभी छलती
 
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मेरी इस अरचित कविता की पंक्ति क्या तुम ही थे
 
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कस्तूरी को ढूंढती, वन मे विचरती घूमती
 
कस्तूरी को ढूंढती, वन मे विचरती घूमती
 
जिस विवशता से बंधी वह अनुरक्ति क्या तुम ही थे
 
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परिचित अपरिचित भूलती शून्य में सिमटती डूबती,
 
परिचित अपरिचित भूलती शून्य में सिमटती डूबती,
 
इस वैराग्य से वापिस बुलाते आसक्ति क्या तुम ही थे
 
इस वैराग्य से वापिस बुलाते आसक्ति क्या तुम ही थे
 
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12:05, 31 अगस्त 2012 के समय का अवतरण

सदा से आकार लेती, आकृति क्या तुम ही थे
जो कभी स्वर ले ना पाई अभिव्यक्ति क्या तुम ही थे

सदा से बनती बिगड़ती, कभी मिटती, कभी छलती
मेरी इस अरचित कविता की पंक्ति क्या तुम ही थे

कस्तूरी को ढूंढती, वन मे विचरती घूमती
जिस विवशता से बंधी वह अनुरक्ति क्या तुम ही थे

परिचित अपरिचित भूलती शून्य में सिमटती डूबती,
इस वैराग्य से वापिस बुलाते आसक्ति क्या तुम ही थे