भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आकृति / नीना कुमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीना कुमार }} {{KKCatGhazal}} <poem> सदा से आकार ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
सदा से आकार लेती, आकृति क्या तुम ही थे | सदा से आकार लेती, आकृति क्या तुम ही थे | ||
जो कभी स्वर ले ना पाई अभिव्यक्ति क्या तुम ही थे | जो कभी स्वर ले ना पाई अभिव्यक्ति क्या तुम ही थे | ||
+ | |||
सदा से बनती बिगड़ती, कभी मिटती, कभी छलती | सदा से बनती बिगड़ती, कभी मिटती, कभी छलती | ||
मेरी इस अरचित कविता की पंक्ति क्या तुम ही थे | मेरी इस अरचित कविता की पंक्ति क्या तुम ही थे | ||
+ | |||
कस्तूरी को ढूंढती, वन मे विचरती घूमती | कस्तूरी को ढूंढती, वन मे विचरती घूमती | ||
जिस विवशता से बंधी वह अनुरक्ति क्या तुम ही थे | जिस विवशता से बंधी वह अनुरक्ति क्या तुम ही थे | ||
+ | |||
परिचित अपरिचित भूलती शून्य में सिमटती डूबती, | परिचित अपरिचित भूलती शून्य में सिमटती डूबती, | ||
इस वैराग्य से वापिस बुलाते आसक्ति क्या तुम ही थे | इस वैराग्य से वापिस बुलाते आसक्ति क्या तुम ही थे | ||
</poem> | </poem> |
12:05, 31 अगस्त 2012 के समय का अवतरण
सदा से आकार लेती, आकृति क्या तुम ही थे
जो कभी स्वर ले ना पाई अभिव्यक्ति क्या तुम ही थे
सदा से बनती बिगड़ती, कभी मिटती, कभी छलती
मेरी इस अरचित कविता की पंक्ति क्या तुम ही थे
कस्तूरी को ढूंढती, वन मे विचरती घूमती
जिस विवशता से बंधी वह अनुरक्ति क्या तुम ही थे
परिचित अपरिचित भूलती शून्य में सिमटती डूबती,
इस वैराग्य से वापिस बुलाते आसक्ति क्या तुम ही थे