"पानी मारा एक मोती / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन |संग्रह=चार खेमे ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 25: | पंक्ति 25: | ||
औ'हथेली पर उजाला पा | औ'हथेली पर उजाला पा | ||
चमत्कृत दृग हुआ था. | चमत्कृत दृग हुआ था. | ||
+ | दैत्य-सी दुःसाहसी होती जवानी ! | ||
+ | आज इनको | ||
+ | उँगलियों में फेर फिर-फिर | ||
+ | डूब जाता हूँ | ||
+ | विचारों की अगम गहराईयों में, | ||
+ | और उतरा | ||
+ | और अपने-आप पर ही मुस्कुरा कर | ||
+ | पूछता हूँ, | ||
+ | क्या थी वे थे | ||
+ | जिनके लिए | ||
+ | मदिरा-सी पी | ||
+ | वाड़व विलोरित,क्षुधित पारावार में मैं धँस गया था . | ||
+ | कौन सा शैतान | ||
+ | मेरे प्राण में, | ||
+ | |||
+ | मोती:-- | ||
+ | |||
+ | मंद से हो | ||
+ | मन्दतर-तम | ||
+ | बंद-सी वे धड़कने अब हो गई हैं | ||
+ | आगवाली,रागवाली, | ||
+ | गीतवाली,मंत्रवाली, | ||
+ | मुग्ध सुनने को जिन्हें | ||
+ | छाती बिंधा डाली कभी थी, | ||
+ | और हो चिर-मुक्त | ||
+ | बंधन-माल अंगीकार की थी; | ||
+ | साँस की भी गंध-गति गायब हुई-सी; | ||
+ | क्या भुजाएँ थी यही | ||
+ | दृढ-निश्चयी,विजयी जिन्होंने | ||
+ | युग-युगांत नितांत शिथिल जड़त्व को | ||
+ | था हुआ,छेड़ा गुदगुदाया--- | ||
+ | आः जीने के प्रथम सुस्पर्श- | ||
+ | हर्षोत्कर्ष को कैसे बताया जाए-- | ||
+ | क्या थीं मुठ्ठियाँ ये वही | ||
+ | जिनकी जकड़ में आ | ||
+ | मुक्ति ने था पूर्व का प्रारब्ध कोसा ! | ||
+ | फटी सीपी थी नहीं | ||
+ | कारा कटी थी | ||
+ | निशा तिमरावृत छटी थी | ||
+ | और अंजलिपुटी का | ||
+ | पहला सुहाता मनुज-काया ताप | ||
+ | भाया था, समय था नसों में,नाड़ियों में. | ||
+ | खुली मुट्ठी थी | ||
+ | कि दृग में विश्व प्रतिबिम्बित हुआ था; | ||
+ | और अब वह लुप्त सहसा; | ||
+ | मुट्ठियाँ ढीली,उँगलियाँ शुष्क,ठंढी-सी, | ||
+ | विनष्टस्फूर्ति,मुर्दा. | ||
+ | क्या यही वे थीं कि जिनके लिए | ||
+ | अन्तर्द्वन्द्व,हलचल बाहरी सारी सहारी ! |
15:52, 25 सितम्बर 2012 के समय का अवतरण
आदमी:--
जा चुका है,
मर चुका है,
मोतियों का वह सुभग पानी
कि जिसकी मरजियों से सुन कहानी,
उल्लसित-मन,
उर्ज्वसित-भुज,
सिंधु कि विक्षुब्ध लहरे चीर
जल गंभीर में
सर-सर उतरता निडर
पहुँचा था अतल तक;
सीपियों को फाड़,
मुक्ता-परस-पुलकित,
भाग्य-धन को मुठ्ठियों में बांध,
पूरित-साध,
ऊपर को उठा था;
औ'हथेली पर उजाला पा
चमत्कृत दृग हुआ था.
दैत्य-सी दुःसाहसी होती जवानी !
आज इनको
उँगलियों में फेर फिर-फिर
डूब जाता हूँ
विचारों की अगम गहराईयों में,
और उतरा
और अपने-आप पर ही मुस्कुरा कर
पूछता हूँ,
क्या थी वे थे
जिनके लिए
मदिरा-सी पी
वाड़व विलोरित,क्षुधित पारावार में मैं धँस गया था .
कौन सा शैतान
मेरे प्राण में,
मोती:--
मंद से हो
मन्दतर-तम
बंद-सी वे धड़कने अब हो गई हैं
आगवाली,रागवाली,
गीतवाली,मंत्रवाली,
मुग्ध सुनने को जिन्हें
छाती बिंधा डाली कभी थी,
और हो चिर-मुक्त
बंधन-माल अंगीकार की थी;
साँस की भी गंध-गति गायब हुई-सी;
क्या भुजाएँ थी यही
दृढ-निश्चयी,विजयी जिन्होंने
युग-युगांत नितांत शिथिल जड़त्व को
था हुआ,छेड़ा गुदगुदाया---
आः जीने के प्रथम सुस्पर्श-
हर्षोत्कर्ष को कैसे बताया जाए--
क्या थीं मुठ्ठियाँ ये वही
जिनकी जकड़ में आ
मुक्ति ने था पूर्व का प्रारब्ध कोसा !
फटी सीपी थी नहीं
कारा कटी थी
निशा तिमरावृत छटी थी
और अंजलिपुटी का
पहला सुहाता मनुज-काया ताप
भाया था, समय था नसों में,नाड़ियों में.
खुली मुट्ठी थी
कि दृग में विश्व प्रतिबिम्बित हुआ था;
और अब वह लुप्त सहसा;
मुट्ठियाँ ढीली,उँगलियाँ शुष्क,ठंढी-सी,
विनष्टस्फूर्ति,मुर्दा.
क्या यही वे थीं कि जिनके लिए
अन्तर्द्वन्द्व,हलचल बाहरी सारी सहारी !