भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आह वो मंजिले-मुराद / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी |संग्रह= }} [[Category:ग...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 17: पंक्ति 17:
 
आज कुछ इस तरह खुला,राज़े-सुकूने-दाइमी.
 
आज कुछ इस तरह खुला,राज़े-सुकूने-दाइमी.
 
इश्क़ को भी खुशी नहीं,हुस्न भी शादमाँ नहीं.
 
इश्क़ को भी खुशी नहीं,हुस्न भी शादमाँ नहीं.
 +
</poem>

21:48, 25 अक्टूबर 2020 के समय का अवतरण

आह वो मंज़िले-मुराद,दूर भी है क़रीब भी.
देर हुई कि क़ाफ़िले उसकी तरफ़ रवाँ नहीं.

दैरो-हरम है गर्दे-राह,नक्शे-क़दम हैं मेहरो-माह.
इनमें कोई भी इश्क़ की मंज़िले-कारवाँ नहीं.

किसने सदा-ए-दर्द दी,किसकी निगाह उठ गई.
अब वो अदम अदम नहीं,अब ये जहाँ जहाँ नहीं.

आज कुछ इस तरह खुला,राज़े-सुकूने-दाइमी.
इश्क़ को भी खुशी नहीं,हुस्न भी शादमाँ नहीं.