भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मुर्दों का टीला / शरद कोकास" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शरद कोकास |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> टीले...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=शरद कोकास
 
|रचनाकार=शरद कोकास
|संग्रह=
+
|संग्रह=गुनगुनी धूप में बैठकर / शरद कोकास
 
}}  
 
}}  
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}

20:36, 1 जुलाई 2016 के समय का अवतरण

 
टीले पर उमड़ आया है
पूरा का पूरा गाँव
गाँव देख रहा है
पुरातत्ववेत्ताओं का तम्बू
कुदाल, फावड़े, रस्सियाँ
निखात से निकली मिट्टी
छलनी से छिटककर गिरते
रंग-बिरंगे मृद्भाण्डों के टुकड़े
मिट्टी की मूर्तियाँ
टेराकोटा
मिट्टी के बैल
हरे पड़ चुके ताँबे के सिक्के

गाँव हैरान है
बाप-दादाओं से सुनी
कहानियाँ क्या झूठी थीं
ज़मीन में दबी
मोहरों से भरी सन्दूकों की
सोने के छल्लों से टकराने वाली
लौह-कुदालों की
खज़ाने पर फन फैलाए
बैठे हुए काले नाग की
सुना तो यही था
उसे स्वर्णयुग कहते थे
चलन में थे सोने-चाँदी के बर्तन
उसके घर के मिट्टी के बर्तनों जैसे हैं

श्रुतियों का विश्वास
बलगम के साथ थूकते हुए
वह याद करता है
अपने उस अँगूठे के निशान को
पिछले चुनाव के दौरान
टीले के नीचे दबे खज़ाने को
गाँववालों के बीच बँटवाने का आश्वासन देकर
ऐसे ही चित्रोंवाले कागज़ पर
मुहर लगवाकर कोई चला गया था

एक बच्चा
ज़ोरों से चीख़ता हुआ
गाँव की ओर भागता है
अँगूठा लगाने वालों जागो ।