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"स्तुति-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी" के अवतरणों में अंतर

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|रचनाकार=मलिक मोहम्मद जायसी
 
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|संग्रह=पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी
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सुमिरौं आदि एक करतारू । जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू ॥
 +
कीन्हेसि प्रथम जोति परकासू । कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू ॥
 +
कीन्हेसि अगिनि, पवन, जल खेहा । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा ॥
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कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू । कीन्हेसि बरन बरन औतारू ॥
 +
कीन्हेसि दिन, दिनअर, ससि, राती । कीन्हेसि नखत, तराइन-पाँती ॥
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कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा । कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहिं माँहा ॥
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कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा । कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा ॥
  
'''मुखपृष्ठ: [[पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी]]'''
+
कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज न काहि ।
 +
पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि ॥1॥
  
 +
कीन्हेसि सात समुन्द अपारा । कीन्हेसि मेरु, खिखिंद पहारा ॥
 +
कीन्हेसि नदी नार, औ झरना । कीन्हेसि मगर मच्छ बहु बरना ॥
 +
कीन्हेसि सीप, मोती जेहि भरे । कीन्हेसि बहुतै नग निरमरे ॥
 +
कीन्हेसि बनखँढ औ जरि मूरी । कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी ॥
 +
कीन्हेसि साउज आरन रहईं । कीन्हेसि पंखि उडहिं जहँ चहईं ॥
 +
कीन्हेसि बरन सेत ओ स्यामा । कीन्हेसि भूख नींद बिसरामा ॥
 +
कीन्हेसि पान फूल बहु भौगू । कीन्हेसि बहु ओषद, बहु रोगू ॥
  
सुमिरौं आदि एक करतारू जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू ॥<br>
+
निमिख न लाग करत ओहि,सबै कीन्ह पल एक ।
कीन्हेसि प्रथम जोति परकासू । कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू ॥<br>
+
गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक ॥2॥
कीन्हेसि अगिनि, पवन, जल खेहा । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा ॥<br>
+
कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू । कीन्हेसि बरन बरन औतारू ॥<br>
+
कीन्हेसि दिन, दिनअर, ससि, राती । कीन्हेसि नखत, तराइन-पाँती ॥<br>
+
कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा । कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहिं माँहा ॥ <br>
+
कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा । कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा ॥<br><br>
+
  
कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज न काहि <br>
+
कीन्हेसि अगर कसतुरी बेना कीन्हेसि भीमसेन औ चीना ॥
पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि ॥1॥<br><br>
+
कीन्हेसि नाग, जो मुख विष बसा । कीन्हेसि मंत्र, हरै जेहि डसा ॥
 +
कीन्हेसि अमृत , जियै जो पाए । कीन्हेसि बिक्ख, मीचु जेहि खाए ॥
 +
कीन्हेसि ऊख मीठ-रस-भरी । कीन्हेसि करू-बेल बहु फरी ॥
 +
कीन्हेसि मधु लावै लै माखी । कीन्हेसि भौंर, पंखि औ पाँखी ॥
 +
कीन्हेसि लोबा इंदुर चाँटी । कीन्हेसि बहुत रहहिं खनि माटी ॥
 +
कीन्हेसि राकस भूत परेता । कीन्हेसि भोकस देव दएता ॥
  
कीन्हेसि सात समुन्द अपारा । कीन्हेसि मेरु, खिखिंद पहारा ॥<br>
+
कीन्हेसि सहस अठारह बरन बरन उपराजि
कीन्हेसि नदी नार, औ झरना । कीन्हेसि मगर मच्छ बहु बरना ॥<br>
+
भुगुति दुहेसि पुनि सबन कहँ सकल साजना साजि ॥3॥
कीन्हेसि सीप, मोती जेहि भरे । कीन्हेसि बहुतै नग निरमरे ॥<br>
+
कीन्हेसि बनखँढ औ जरि मूरी । कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी ॥<br>
+
कीन्हेसि साउज आरन रहईं । कीन्हेसि पंखि उडहिं जहँ चहईं ॥<br>
+
कीन्हेसि बरन सेत ओ स्यामा कीन्हेसि भूख नींद बिसरामा ॥<br>
+
कीन्हेसि पान फूल बहु भौगू । कीन्हेसि बहु ओषद, बहु रोगू ॥<br><br>
+
  
निमिख लाग करत ओहि,सबै कीन्ह पल एक <br>
+
कीन्हेसि मानुष, दिहेसि बडाई । कीन्हेसि अन्न, भुगुति तेहिं पाई ॥
गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक ॥2॥<br><br>
+
कीन्हेसि राजा भूँजहिं राजू । कीन्हेसि हस्ति घोर तेहि साजू ॥
 +
कीन्हेसि दरब गरब जेहि होई । कीन्हेसि लोभ, अघाइ कोई ॥
 +
कीन्हेसि जियन , सदा सब चाहा कीन्हेसि मीचु, न कोई रहा ॥
 +
कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू । कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू ॥
 +
कीन्हेसि कोइ भिखारि, कोइ धनी । कीन्हेसि सँपति बिपति पुनि घनी ॥
  
कीन्हेसि अगर कसतुरी बेना । कीन्हेसि भीमसेन औ चीना ॥<br>
+
कीन्हेसि कोई निभरोसी, कीन्हेसि कोइ बरियार
कीन्हेसि नाग, जो मुख विष बसा । कीन्हेसि मंत्र, हरै जेहि डसा ॥<br>
+
छारहिं तें सब कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब छार ॥4॥
कीन्हेसि अमृत , जियै जो पाए कीन्हेसि बिक्ख, मीचु जेहि खाए ॥<br>
+
कीन्हेसि ऊख मीठ-रस-भरी । कीन्हेसि करू-बेल बहु फरी ॥<br>
+
कीन्हेसि मधु लावै लै माखी । कीन्हेसि भौंर, पंखि औ पाँखी ॥<br>
+
कीन्हेसि लोबा इंदुर चाँटी । कीन्हेसि बहुत रहहिं खनि माटी ॥<br>
+
कीन्हेसि राकस भूत परेता । कीन्हेसि भोकस देव दएता ॥<br><br>
+
  
कीन्हेसि सहस अठारह बरन बरन उपराजि <br>
+
धनपति उहै जेहिक संसारू सबै देइ निति, घट न भँडारू ॥
भुगुति दुहेसि पुनि सबन कहँ सकल साजना साजि ॥3॥<br><br>
+
जावत जगत हस्ति औ चाँटा । सब कहँ भुगुति राति दिन बाँटा ॥
 +
ताकर दीठि जो सब उपराहीं । मित्र सत्रु कोइ बिसरै नाहीं ॥
 +
पखि पतंग न बिसरे कोई । परगट गुपुत जहाँ लगि होई ॥
 +
भोग भुगुति बहु भाँति उपाई । सबै खवाई, आप नहिं खाई ॥
 +
ताकर उहै जो खाना पियना । सब कहँ देइ भुगुति ओ जियना ॥
 +
सबै आस-हर ताकर आसा । वह न काहु के आस निरासा ॥
  
कीन्हेसि मानुष, दिहेसि बडाई कीन्हेसि अन्न, भुगुति तेहिं पाई ॥<br>
+
जुग जुग देत घटा नहिं, उभै हाथ अस कीन्ह
कीन्हेसि राजा भूँजहिं राजू । कीन्हेसि हस्ति घोर तेहि साजू ॥<br>
+
और जो दीन्ह जगत महँ सो सब ताकर दीन्ह ॥5॥
कीन्हेसि दरब गरब जेहि होई । कीन्हेसि लोभ, अघाइ न कोई ॥<br>
+
कीन्हेसि जियन , सदा सब चाहा । कीन्हेसि मीचु, न कोई रहा ॥<br>
+
कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू । कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू ॥<br>
+
कीन्हेसि कोइ भिखारि, कोइ धनी । कीन्हेसि सँपति बिपति पुनि घनी ॥<br><br>
+
  
कीन्हेसि कोई निभरोसी, कीन्हेसि कोइ बरियार <br>
+
आदि एक बरनौं सोइ राजा । आदि न अंत राज जेहि छाजा ॥
छारहिं तें सब कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब छार ॥4॥<br><br>
+
सदा सरबदा राज करेई । औ जेहि चहै राज तेहि देई ॥
 +
छत्रहिं अछत, निछत्रहिं छावा दूसर नाहिं जो सरवरि पावा ॥
 +
परबत ढाह देख सब लोगू । चाँटहि करै हस्ति-सरि-जोगू ॥
 +
बज्रांह तिनकहिं मारि उडाई । तिनहि बज्र करि देई बडाई ॥
 +
ताकर कीन्ह न जानै कोई । करै सोइ जो चित्त न होई ॥
 +
काहू भोग भुगुति सुख सारा । काहू बहुत भूख दुख मारा ॥
  
धनपति उहै जेहिक संसारू । सबै देइ निति, घट न भँडारू ॥<br>
+
सबै नास्ति वह अहथिर, ऐस साज जेहि केर ।
जावत जगत हस्ति चाँटा । सब कहँ भुगुति राति दिन बाँटा ॥<br>
+
एक साजे भाँजै , चहै सँवारै फेर ॥6॥
ताकर दीठि जो सब उपराहीं । मित्र सत्रु कोइ बिसरै नाहीं ॥<br>
+
पखि पतंग न बिसरे कोई । परगट गुपुत जहाँ लगि होई ॥<br>
+
भोग भुगुति बहु भाँति उपाई । सबै खवाई, आप नहिं खाई ॥<br>
+
ताकर उहै जो खाना पियना । सब कहँ देइ भुगुति ओ जियना ॥<br>
+
सबै आस-हर ताकर आसा । वह न काहु के आस निरासा ॥<br><br>
+
  
जुग जुग देत घटा नहिं, उभै हाथ अस कीन्ह ।<br>
+
अलख अरूप अबरन सो कर्ता । वह सब सों, सब ओहि सों बर्ता ॥
और जो दीन्ह जगत महँ सो सब ताकर दीन्ह ॥5॥<br><br>
+
परगट गुपुत सो सरबबिआपी । धरमी चीन्ह, न चीन्है पापी ॥
 +
ना ओहि पूत न पिता न माता । ना ओहि कुटुब न कोई सँग नाता ॥
 +
जना न काहु, न कोइ ओहि जना । जहँ लगि सब ताकर सिरजना ॥
 +
वै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई वह नहिं कीन्ह काहु कर होई ॥
 +
हुत पहिले अरु अब है सोई । पुनि सो रहै रहै नहिं कोई ॥
 +
और जो होइ सो बाउर अंधा । दिन दुइ चारि मरै करि धंधा ॥
  
आदि एक बरनौं सोइ राजा । आदि न अंत राज जेहि छाजा ॥<br>
+
जो चाहा सो कीन्हेसि, करै जो चाहै कीन्ह
सदा सरबदा राज करेई । औ जेहि चहै राज तेहि देई ॥<br>
+
बरजनहार न कोई, सबै चाहि जिउ दीन्ह ॥7॥
छत्रहिं अछत, निछत्रहिं छावा । दूसर नाहिं जो सरवरि पावा ॥<br>
+
परबत ढाह देख सब लोगू चाँटहि करै हस्ति-सरि-जोगू ॥<br>
+
बज्रांह तिनकहिं मारि उडाई । तिनहि बज्र करि देई बडाई ॥<br>
+
ताकर कीन्ह जानै कोई । करै सोइ जो चित्त न होई ॥<br>
+
काहू भोग भुगुति सुख सारा । काहू बहुत भूख दुख मारा ॥<br><br>
+
  
सबै नास्ति वह अहथिर, ऐस साज जेहि केर <br>
+
एहि विधि चीन्हहु करहु गियानू । जस पुरान महँ लिखा बखानू ॥
एक साजे औ भाँजै , चहै सँवारै फेर ॥6॥<br><br>
+
जीउ नाहिं, पै जियै गुसाईं कर नाहीं, पै करै सबाईं ॥
 +
जीभ नाहिं, पै सब किछु बोला । तन नाहीं, सब ठाहर डोला ॥
 +
स्रवन नाहिं, पै सक किछु सुना । हिया नाहिं पै सब किछु गुना ॥
 +
नयन नाहिं, पै सब किछु देखा । कौन भाँति अस जाइ बिसेखा ॥
 +
है नाहीं कोइ ताकर रूपा । ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा ॥
 +
ना ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊँ । रूप रेख बिनु निरमल नाऊ ॥
  
अलख अरूप अबरन सो कर्ता । वह सब सों, सब ओहि सों बर्ता ॥<br>
+
ना वह मिला न बेहरा, ऐस रहा भरिपूरि
परगट गुपुत सो सरबबिआपी धरमी चीन्ह, न चीन्है पापी ॥<br>
+
दीठिवंत कहँ नीयरे, अंध मूरुखहिं दूरि ॥8॥
ना ओहि पूत न पिता न माता । ना ओहि कुटुब न कोई सँग नाता ॥<br>
+
जना न काहु, न कोइ ओहि जना । जहँ लगि सब ताकर सिरजना ॥<br>
+
वै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई । वह नहिं कीन्ह काहु कर होई ॥<br>
+
हुत पहिले अरु अब है सोई । पुनि सो रहै रहै नहिं कोई ॥<br>
+
और जो होइ सो बाउर अंधा । दिन दुइ चारि मरै करि धंधा ॥<br><br>
+
  
जो चाहा सो कीन्हेसि, करै जो चाहै कीन्ह <br>
+
और जो दीन्हेसि रतन अमोला । ताकर मरम न जानै भोला ॥
बरजनहार न कोई, सबै चाहि जिउ दीन्ह ॥7॥<br><br>
+
दीन्हेसि रसना और रस भोगू । दीन्हेसि दसन जो बिहँसै जोगू ॥
 +
दीन्हेसि जग देखन कहँ नैना दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ बैना ॥
 +
दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि कर-पल्लौ, बर बाहाँ ॥
 +
दीन्हेसि चरन अनूप चलाहीं । सो जानइ जेहि दीन्हेसि नाहीं ॥
 +
जोबन मरम जान पै बूढा । मिला न तरुनापा जग ढूँढाँ ॥
 +
दुख कर मरम न जानै राजा । दुखी जान जा पर दुख बाजा ॥
  
एहि विधि चीन्हहु करहु गियानू । जस पुरान महँ लिखा बखानू ॥<br>
+
काया-मरम जान पै रोगी, भोगी रहै निचिंत
जीउ नाहिं, पै जियै गुसाईं । कर नाहीं, पै करै सबाईं ॥<br>
+
सब कर मरम गोसाईं (जान) जो घट घट रहै निंत ॥9॥
जीभ नाहिं, पै सब किछु बोला तन नाहीं, सब ठाहर डोला ॥<br>
+
स्रवन नाहिं, पै सक किछु सुना । हिया नाहिं पै सब किछु गुना ॥<br>
+
नयन नाहिं, पै सब किछु देखा । कौन भाँति अस जाइ बिसेखा ॥<br>
+
है नाहीं कोइ ताकर रूपा । ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा ॥<br>
+
ना ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊँ । रूप रेख बिनु निरमल नाऊ ॥<br><br>
+
  
ना वह मिला बेहरा, ऐस रहा भरिपूरि <br>
+
अति अपार करता कर करना । बरनि कोई पावै बरना ॥
दीठिवंत कहँ नीयरे, अंध मूरुखहिं दूरि ॥8॥<br><br>
+
सात सरग जौ कागद करई । धरती समुद दुहुँ मसि भरई ॥
 +
जावत जग साखा बनढाखा । जावत केस रोंव पँखि -पाखा ॥
 +
जावत खेह रेह दुनियाई । मेघबूँद औ गगन तराई ॥
 +
सब लिखनी कै लिखु संसारा । लिखि न जाइ गति-समुद अपारा ॥
 +
ऐस कीन्ह सब गुन परगटा अबहुँ समुद महँ बूँद न घटा ॥
 +
ऐस जानि मन गरब न होई । गरब करे मन बाउर सोई ॥
  
और जो दीन्हेसि रतन अमोला ताकर मरम न जानै भोला ॥<br>
+
बड गुनवंत गोसाईं, चहै सँवारै बेग
दीन्हेसि रसना और रस भोगू । दीन्हेसि दसन जो बिहँसै जोगू ॥<br>
+
औ अस गुनी सँवारे, जो गुन करै अनेग ॥10॥
दीन्हेसि जग देखन कहँ नैना । दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ बैना ॥<br>
+
दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि कर-पल्लौ, बर बाहाँ ॥<br>
+
दीन्हेसि चरन अनूप चलाहीं । सो जानइ जेहि दीन्हेसि नाहीं ॥<br>
+
जोबन मरम जान पै बूढा । मिला न तरुनापा जग ढूँढाँ ॥<br>
+
दुख कर मरम न जानै राजा । दुखी जान जा पर दुख बाजा ॥<br><br>
+
  
काया-मरम जान पै रोगी, भोगी रहै निचिंत <br>
+
कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा । नाम मुहम्मद पूनौ-करा ॥
सब कर मरम गोसाईं (जान) जो घट घट रहै निंत ॥9॥<br><br>
+
प्रथम जोति बिधि ताकर साजी । औ तेहि प्रीति सिहिट उपराजी ॥
 +
दीपक लेसि जगत कहँ दीन्हा । भा निरमल जग, मारग चीन्हा ॥
 +
जौ न होत अस पुरुष उजारा सूझि न परत पंथ अँधियारा ॥
 +
दुसरे ढाँवँ दैव वै लिखे । भए धरमी जे पाढत सिखे ॥
 +
जेहि नहिं लीन्ह जनम भरि नाऊँ । ता कहँ कीन्ह नरक महँ ठाउँ ॥
 +
जगत बसीठ दई ओहिं कीन्हा । दुइ जग तरा नावँ जेहि लीन्हा ॥
  
अति अपार करता कर करना । बरनि न कोई पावै बरना ॥<br>
+
गुन अवगुन बिधि पूछब, होइहिं लेख जोख
सात सरग जौ कागद करई । धरती समुद दुहुँ मसि भरई ॥<br>
+
वह बिनउब आगे होइ, करब जगत कर मोख ॥11॥
जावत जग साखा बनढाखा । जावत केस रोंव पँखि -पाखा ॥<br>
+
जावत खेह रेह दुनियाई । मेघबूँद गगन तराई ॥<br>
+
सब लिखनी कै लिखु संसारा लिखि न जाइ गति-समुद अपारा ॥<br>
+
ऐस कीन्ह सब गुन परगटा । अबहुँ समुद महँ बूँद न घटा ॥<br>
+
ऐस जानि मन गरब न होई । गरब करे मन बाउर सोई ॥<br><br>
+
  
बड गुनवंत गोसाईं, चहै सँवारै बेग <br>
+
चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ ॥
औ अस गुनी सँवारे, जो गुन करै अनेग ॥10॥<br><br>
+
अबाबकर सिद्दीक सयाने । पहिले सिदिक दीन वइ आने ॥
 +
पुनि सो उमर खिताब सुहाए । भा जग अदल दीन जो आए ॥
 +
पुनि उसमान पंडित बड गुनी । लिखा पुरान जो आयत सुनी ॥
 +
चौथे अली सिंह बरियारू । सौंहँ न कोऊ रहा जुझारू ॥
 +
चारिउ एक मतै, एक बाना । एक पंथ औ एक सँधाना ॥
 +
बचन एक जो सुना वइ साँचा । भा परवान दुहुँ जग बाँचा ॥
  
कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा । नाम मुहम्मद पूनौ-करा ॥<br>
+
जो पुरान बिधि पठवा सोई पढत गरंथ ।  
प्रथम जोति बिधि ताकर साजी औ तेहि प्रीति सिहिट उपराजी ॥<br>
+
और जो भूले आवत सो सुनि लागे पंथ ॥12॥
दीपक लेसि जगत कहँ दीन्हा । भा निरमल जग, मारग चीन्हा ॥<br>
+
जौ न होत अस पुरुष उजारा । सूझि न परत पंथ अँधियारा ॥<br>
+
दुसरे ढाँवँ दैव वै लिखे । भए धरमी जे पाढत सिखे ॥<br>
+
जेहि नहिं लीन्ह जनम भरि नाऊँ । ता कहँ कीन्ह नरक महँ ठाउँ ॥<br>
+
जगत बसीठ दई ओहिं कीन्हा । दुइ जग तरा नावँ जेहि लीन्हा ॥<br><br>
+
  
गुन अवगुन बिधि पूछब, होइहिं लेख जोख <br>
+
सेरसाहि देहली-सुलतान । चारिउ खंड तपै जस भानू ॥
वह बिनउब आगे होइ, करब जगत कर मोख ॥11॥<br><br>
+
ओही छाज छात पाटा सब राजै भुइँ धरा लिलाटा ॥
 +
जाति सूर औ खाँडे सूरा । और बुधिवंत सबै गुन पूरा ॥
 +
सूर नवाए नवखँड वई । सातउ दीप दुनी सब नई ॥
 +
तह लगि राज खडग करि लीन्हा । इसकंदर जुलकरन जो कीन्हा ॥
 +
हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी । जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी ॥
 +
औ अति गरू भूमिपति भारी । टेक भूमि सब सिहिट सँभारी ॥
  
चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ । जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ ॥<br>
+
दीन्ह असीस मुहम्मद, करहु जुगहि जुग राज
अबाबकर सिद्दीक सयाने । पहिले सिदिक दीन वइ आने ॥<br>
+
बादसाह तुम जगत के जग तुम्हार मुहताज ॥13॥
पुनि सो उमर खिताब सुहाए । भा जग अदल दीन जो आए ॥<br>
+
पुनि उसमान पंडित बड गुनी । लिखा पुरान जो आयत सुनी ॥<br>
+
चौथे अली सिंह बरियारू । सौंहँ न कोऊ रहा जुझारू ॥<br>
+
चारिउ एक मतै, एक बाना एक पंथ औ एक सँधाना ॥<br>
+
बचन एक जो सुना वइ साँचा । भा परवान दुहुँ जग बाँचा ॥<br><br>
+
  
जो पुरान बिधि पठवा सोई पढत गरंथ <br>
+
बरनौं सूर भूमिपति राजा भूमि न भार सहै जेहि साजा ॥
और जो भूले आवत सो सुनि लागे पंथ ॥12॥<br><br>
+
हय गय सेन चलै जग पूरी । परबत टूटि उडहिं होइ धूरी ॥
 +
रेनु रैनि होइ रबिहिं गरासा । मानुख पंखि लेहिं फिरि बासा ॥
 +
भुइँ उडि अंतरिक्ख मृतमंडा । खंड खंड धरती बरम्हंडा ॥
 +
डोलै गगन, इंद्र डरि काँपा । बासुकि जाइ पतारहि चाँपा ॥
 +
मेरु धसमसै, समुद सुखाई । बन खँड टूटि खेह मिल जाई ॥
 +
अगिलिहिं कहँ पानी लेइ बाँटा । पछिलहिं कहँ नहिं काँदौं आटा ॥
  
सेरसाहि देहली-सुलतान । चारिउ खंड तपै जस भानू ॥<br>
+
जो गढ नएउ न काहुहि चलत होइ सो चूर
ओही छाज छात औ पाटा । सब राजै भुइँ धरा लिलाटा ॥<br>
+
जब वह चढै भूमिपति सेर साहि जग सूर ॥14॥
जाति सूर औ खाँडे सूरा । और बुधिवंत सबै गुन पूरा ॥<br>
+
सूर नवाए नवखँड वई । सातउ दीप दुनी सब नई ॥<br>
+
तह लगि राज खडग करि लीन्हा । इसकंदर जुलकरन जो कीन्हा ॥<br>
+
हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी ॥<br>
+
औ अति गरू भूमिपति भारी । टेक भूमि सब सिहिट सँभारी ॥<br><br>
+
  
दीन्ह असीस मुहम्मद, करहु जुगहि जुग राज <br>
+
अदल कहौं पुहुमी जस होई चाँटा चलत न दुखवै कोई ॥
बादसाह तुम जगत के जग तुम्हार मुहताज ॥13॥<br><br>
+
नौसेरवाँ जो आदिल कहा । साहि अदल-सरि सोउ न अहा ॥
 +
अदल जो कीन्ह उमर कै नाई । भइ अहा सगरी दुनियाई ॥
 +
परी नाथ कोइ छुवै न पारा । मारग मानुष सोन उछारा ॥
 +
गऊ सिंह रेंगहि एक बाटा । दूनौ पानि पियहिं एक घाटा ॥
 +
नीर खीर छानै दरबारा । दूध पानि सब करै निनारा ॥
 +
धरम नियाव चलै; सत भाखा । दूबर बली एक सम राखा ॥
  
बरनौं सूर भूमिपति राजा भूमि न भार सहै जेहि साजा ॥<br>
+
सब पृथवी सीसहिं नई जोरि जोरि कै हाथ
हय गय सेन चलै जग पूरी । परबत टूटि उडहिं होइ धूरी ॥<br>
+
गंग-जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ ॥15॥
रेनु रैनि होइ रबिहिं गरासा । मानुख पंखि लेहिं फिरि बासा ॥<br>
+
भुइँ उडि अंतरिक्ख मृतमंडा । खंड खंड धरती बरम्हंडा ॥<br>
+
डोलै गगन, इंद्र डरि काँपा । बासुकि जाइ पतारहि चाँपा ॥ <br>
+
मेरु धसमसै, समुद सुखाई । बन खँड टूटि खेह मिल जाई ॥<br>
+
अगिलिहिं कहँ पानी लेइ बाँटा । पछिलहिं कहँ नहिं काँदौं आटा ॥<br><br>
+
  
जो गढ नएउ न काहुहि चलत होइ सो चूर <br>
+
पुनि रूपवंत बखानौं काहा । जावत जगत सबै मुख चाहा ॥
जब वह चढै भूमिपति सेर साहि जग सूर ॥14॥<br><br>
+
ससि चौदसि जो दई सँवारा ताहू चाहि रूप उँजियारा ॥
 +
पाप जाइ जो दरसन दीसा । जग जुहार कै देत असीसा ॥
 +
जैस भानु जग ऊपर तपा । सबै रूप ओहि आगे छपा ॥
 +
अस भा सूर पुरुष निरमरा । सूर चाहि दस आगर करा ॥
 +
सौंह दीठि कै हेरि न जाई । जेहि देखा सो रहा सिर नाई ॥
 +
रूप सवाई दिन दिन चढा ।बिधि सुरूप जग ऊपर गढा ॥
  
अदल कहौं पुहुमी जस होई चाँटा चलत न दुखवै कोई ॥<br>
+
रूपवंत मनि माथे, चंद्र घाटि वह बाढि
नौसेरवाँ जो आदिल कहा । साहि अदल-सरि सोउ न अहा ॥<br>
+
मेदिनि दरस लोभानी असतुति बिनवै ठाढि ॥16॥
अदल जो कीन्ह उमर कै नाई । भइ अहा सगरी दुनियाई ॥<br>
+
परी नाथ कोइ छुवै न पारा । मारग मानुष सोन उछारा ॥<br>
+
गऊ सिंह रेंगहि एक बाटा । दूनौ पानि पियहिं एक घाटा ॥<br>
+
नीर खीर छानै दरबारा । दूध पानि सब करै निनारा ॥<br>
+
धरम नियाव चलै; सत भाखा । दूबर बली एक सम राखा ॥<br><br>
+
  
सब पृथवी सीसहिं नई जोरि जोरि कै हाथ <br>
+
पुनि दातार दई जग कीन्हा अस जग दान न काहू दीन्हा ॥
गंग-जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ ॥15॥<br><br>
+
बलि विक्रम दानी बड कहे । हातिम करन तियागी अहे ॥
 +
सेरसाहि सरि पूज न कोऊ । समुद सुमेर भँडारी दोऊ ॥
 +
दान डाँक बाजै दरबारा । कीरति गई समुंदर पारा ॥
 +
कंचन परसि सूर जग भयऊ । दारिद भागि दिसंतर गयऊ ॥
 +
जो कोइ जाइ एक बेर माँगा । जनम न भा पुनि भूखा नागा ॥
 +
दस असमेध जगत जेइ कीन्हा । दान-पुन्य-सरि सौंह न दीन्हा ॥
  
पुनि रूपवंत बखानौं काहा । जावत जगत सबै मुख चाहा ॥<br>
+
ऐस दानि जग उपजा सेरसाहि सुलतान
ससि चौदसि जो दई सँवारा । ताहू चाहि रूप उँजियारा ॥<br>
+
ना अस भयउ होइहि, ना कोइ देइ अस दान ॥17॥
पाप जाइ जो दरसन दीसा । जग जुहार कै देत असीसा ॥<br>
+
जैस भानु जग ऊपर तपा सबै रूप ओहि आगे छपा ॥<br>
+
अस भा सूर पुरुष निरमरा । सूर चाहि दस आगर करा ॥<br>
+
सौंह दीठि कै हेरि जाई । जेहि देखा सो रहा सिर नाई ॥<br>
+
रूप सवाई दिन दिन चढा ।बिधि सुरूप जग ऊपर गढा ॥<br><br>
+
  
रूपवंत मनि माथे, चंद्र घाटि वह बाढि <br>
+
सैयद असरफ पीर पियारा । जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उँजियारा ॥
मेदिनि दरस लोभानी असतुति बिनवै ठाढि ॥16॥<br><br>
+
लेसा हियें प्रेम कर दीया । उठी जोति भा निरमल हीया ॥
 +
मारग हुत अँधियार जो सूझा । भा अँजोर, सब जाना बूझा ॥
 +
खार समुद्र पाप मोर मेला बोहित -धरम लीन्ह कै चेला ॥
 +
उन्ह मोर कर बूडत कै गहा । पायों तीर घाट जो अहा ॥
 +
जाकहँ ऐस होइ कंधारा । तुरत बेगि सो पावै पारा ॥
 +
दस्तगीर गाढे कै साथी । बह अवगाह, दीन्ह तेहि हाथी ॥
  
पुनि दातार दई जग कीन्हा अस जग दान न काहू दीन्हा ॥<br>
+
जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद
बलि विक्रम दानी बड कहे । हातिम करन तियागी अहे ॥<br>
+
वै मखदूम जगत के, हौं ओहि घर कै बाँद ॥18॥
सेरसाहि सरि पूज न कोऊ । समुद सुमेर भँडारी दोऊ ॥<br>
+
दान डाँक बाजै दरबारा । कीरति गई समुंदर पारा ॥<br>
+
कंचन परसि सूर जग भयऊ । दारिद भागि दिसंतर गयऊ ॥<br>
+
जो कोइ जाइ एक बेर माँगा । जनम न भा पुनि भूखा नागा ॥<br>
+
दस असमेध जगत जेइ कीन्हा । दान-पुन्य-सरि सौंह न दीन्हा ॥<br><br>
+
  
ऐस दानि जग उपजा सेरसाहि सुलतान <br>
+
ओहि घर रतन एक निरमरा । हाजी शेख सबै गुन भरा ॥
ना अस भयउ न होइहि, ना कोइ देइ अस दान ॥17॥<br><br>
+
तेहि घर दुइ दीपक उजियारे । पंथ देइ कहँ दैव सँवारे ॥
 +
सेख मुहम्मद पून्यो-करा । सेख कमाल जगत निरमरा ॥
 +
दुऔ अचल धुव डोलहि नाहीं । मेरु खिखिद तिन्हहुँ उपराहीं ॥
 +
दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं । कीन्ह खंभ दुइ जग के ताईं ॥
 +
दुहुँ खंभ टेके सब महीं दुहुँ के भार सिहिट थिर रही ॥
 +
जेहि दरसे औ परसे पाया । पाप हरा, निरमल भइ काया ॥
  
सैयद असरफ पीर पियारा जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उँजियारा ॥<br>
+
मुहमद तेइ निचिंत पथ जेहि सग मुरसिद पीर ।
लेसा हियें प्रेम कर दीया । उठी जोति भा निरमल हीया ॥<br>
+
जेहिके नाव औ खेवक बेगि लागि सो तीर ॥19॥
मारग हुत अँधियार जो सूझा । भा अँजोर, सब जाना बूझा ॥<br>
+
खार समुद्र पाप मोर मेला । बोहित -धरम लीन्ह कै चेला ॥<br>
+
उन्ह मोर कर बूडत कै गहा । पायों तीर घाट जो अहा ॥<br>
+
जाकहँ ऐस होइ कंधारा । तुरत बेगि सो पावै पारा ॥ <br>
+
दस्तगीर गाढे कै साथी । बह अवगाह, दीन्ह तेहि हाथी ॥<br><br>
+
  
जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद ।<br>
 
वै मखदूम जगत के, हौं ओहि घर कै बाँद ॥18॥<br><br>
 
  
ओहि घर रतन एक निरमरा हाजी शेख सबै गुन भरा <br>
+
गुरु मोहदी खेवक मै सेवा चलै उताइल जेहिं कर खेवा
तेहि घर दुइ दीपक उजियारे । पंथ देइ कहँ दैव सँवारे <br>
+
अगुवा भयउ सेख बुरहानू । पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू
सेख मुहम्मद पून्यो-करा सेख कमाल जगत निरमरा <br>
+
अहलदाद भल तेहि कर गुरू दीन दुनी रोसन सुरखुरू
दुऔ अचल धुव डोलहि नाहीं मेरु खिखिद तिन्हहुँ उपराहीं <br>
+
सैयद मुहमद कै वै चेला सिद्द-पुरुष-संगम जेहि खेला
दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं कीन्ह खंभ दुइ जग के ताईं <br>
+
दानियाल गुरु पंथ लखाए हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए
दुहुँ खंभ टेके सब महीं दुहुँ के भार सिहिट थिर रही <br>
+
भए प्रसन्न ओहि हजरत ख्वाजे लिये मेरइ जहँ सैयद राजे
जेहि दरसे औ परसे पाया पाप हरा, निरमल भइ काया <br><br>
+
ओहि सेवत मैं पाई करनी उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी
  
मुहमद तेइ निचिंत पथ जेहि सग मुरसिद पीर <br>
+
वै सुगुरू, हौं चेला , नित बिनवौं भा चेर
जेहिके नाव औ खेवक बेगि लागि सो तीर ॥19॥<br><br>
+
उन्ह हुत देखै पायउँ दरस गोसाईं केर ॥20॥
  
 +
एक नयन कबि मुहमद गुनी । सोइ बिमोहा जेहि कबि सुनी ॥
 +
चाँद जैस जग विधि औतारा । दीन्ह कलंक, कीन्ह उजियारा ॥
 +
जग सूझा एकै नयनाहाँ । उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ ॥
 +
जौ लहि अंबहिं डाभ न होई । तौ लहि सुगँध बसाइ न सोई ॥
 +
कीन्ह समुद्र पानि जो खारा । तौ अति भयउ असूझ अपारा ॥
 +
जौ सुमेरु तिरसूल बिनासा । भा कंचन-गिरि, लाग अकासा ॥
 +
जौ लहि घरी कलंक न परा । काँच होइ नहिं कंचन-करा ॥
  
गुरु मोहदी खेवक मै सेवा । चलै उताइल जेहिं कर खेवा ॥<br>
+
एक नयन जस दरपन औ निरमल तेहि भाउ
अगुवा भयउ सेख बुरहानू । पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू ॥<br>
+
सब रूपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं कै चाउ ॥21॥
अहलदाद भल तेहि कर गुरू दीन दुनी रोसन सुरखुरू ॥<br>
+
सैयद मुहमद कै वै चेला । सिद्द-पुरुष-संगम जेहि खेला ॥<br>
+
दानियाल गुरु पंथ लखाए । हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए ॥<br>
+
भए प्रसन्न ओहि हजरत ख्वाजे । लिये मेरइ जहँ सैयद राजे ॥<br>
+
ओहि सेवत मैं पाई करनी । उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी ॥<br><br>
+
  
वै सुगुरू, हौं चेला , नित बिनवौं भा चेर <br>
+
चारि मीन कबि मुहमद पाए । जोरि मिताई सिर पहुँचाए ॥
उन्ह हुत देखै पायउँ दरस गोसाईं केर ॥20॥<br><br>
+
युसूफ मलिक पँडित बहु ज्ञानी । पहिले भेद-बात वै जानी ॥
 +
पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ । खाँडे-दान उभै निति बाहाँ ॥
 +
मियाँ सलौने सिंघ बरियारू । बीर खेतरन खडग जुझारू ॥
 +
सेख बडे, बड सिद्ध बखाना । किए आदेस सिद्ध बड माना
 +
चारिउ चतुरदसा गुन पढे । औ संजोग गोसाईं गढे ॥
 +
बिरिछ होइ जौ चंदन पासा । चंदन होइ बेधि तेहि बासा ॥
  
एक नयन कबि मुहमद गुनी सोइ बिमोहा जेहि कबि सुनी ॥<br>
+
मुहमद चारिउ मीत मिलि भए जो एकै चित्त
चाँद जैस जग विधि औतारा । दीन्ह कलंक, कीन्ह उजियारा ॥<br>
+
एहि जग साथ जो निबहा, ओहि जग बिछुरन कित्त ?॥22॥
जग सूझा एकै नयनाहाँ । उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ ॥<br>
+
जौ लहि अंबहिं डाभ न होई । तौ लहि सुगँध बसाइ न सोई ॥<br>
+
कीन्ह समुद्र पानि जो खारा । तौ अति भयउ असूझ अपारा ॥<br>
+
जौ सुमेरु तिरसूल बिनासा । भा कंचन-गिरि, लाग अकासा ॥<br>
+
जौ लहि घरी कलंक न परा । काँच होइ नहिं कंचन-करा ॥<br><br>
+
  
एक नयन जस दरपन निरमल तेहि भाउ <br>
+
जायस नगर धरम अस्थानू । तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू ॥
सब रूपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं कै चाउ ॥21॥<br><br>
+
बिनती पँडितन सन भजा टूट सँवारहु, नेरवहु सजा ॥
 +
हौं पंडितन केर पछलागा । किछु कहि चला तबल देइ डगा ॥
 +
हिय भंडार नग अहै जो पूजी । खोली जीभ तारू कै कूँजी ॥
 +
रतन-पदारथ बोल जो बोला । सुरस प्रेम मधु भरा अमोला ॥
 +
जेहि के बोल बिरह कै घाया । कह तेहि भूख कहाँ तेहि माया ?॥
 +
फेरे भेख रहै भा तपा । धूरि-लपेटा मानिक छपा ॥
  
चारि मीन कबि मुहमद पाए जोरि मिताई सिर पहुँचाए ॥<br>
+
मुहमद कबि जौ बिरह भा ना तन रकत न माँसु
युसूफ मलिक पँडित बहु ज्ञानी । पहिले भेद-बात वै जानी ॥<br>
+
जेइ मुख देखा तेइ हसा, सुनि तेहि आयउ आँसु ॥23॥
पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ । खाँडे-दान उभै निति बाहाँ ॥<br>
+
मियाँ सलौने सिंघ बरियारू । बीर खेतरन खडग जुझारू ॥<br>
+
सेख बडे, बड सिद्ध बखाना । किए आदेस सिद्ध बड माना ।<br>
+
चारिउ चतुरदसा गुन पढे । औ संजोग गोसाईं गढे ॥<br>
+
बिरिछ होइ जौ चंदन पासा । चंदन होइ बेधि तेहि बासा ॥<br><br>
+
  
मुहमद चारिउ मीत मिलि भए जो एकै चित्त <br>
+
सन नव सै सत्ताइस अहा कथा अरंभ-बैन कबि कहा ॥
एहि जग साथ जो निबहा, ओहि जग बिछुरन कित्त ?॥22॥<br><br>
+
सिंघलदीप पदमिनी रानी । रतनसेन चितउर गढ आनी ॥
 +
अलउद्दीन देहली सुलतानू । राघौ चेतन कीन्ह बखानू ॥
 +
सुना साहि गढ छेंका आई । हिंदू तुरुकन्ह भई लराई ॥
 +
आदि अंत जस गाथा अहै । लिखि भाखा चौपाई कहै ॥
 +
कवि बियास कवला रस-पूरी । दूरि सो नियर, नियर सो दूरी ॥
 +
नियरे दूर, फूल जस काँटा । दूरि जो नियरे, जस गुड चाँटा ॥
  
जायस नगर धरम अस्थानू । तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू ॥<br>
+
भँवर आइ बनखँड सन कँवल कै बास
औ बिनती पँडितन सन भजा टूट सँवारहु, नेरवहु सजा ॥<br>
+
दादुर बास न पावई भलहि जो आछै पास ॥24॥
हौं पंडितन केर पछलागा । किछु कहि चला तबल देइ डगा ॥<br>
+
हिय भंडार नग अहै जो पूजी । खोली जीभ तारू कै कूँजी ॥ <br>
+
रतन-पदारथ बोल जो बोला । सुरस प्रेम मधु भरा अमोला ॥<br>
+
जेहि के बोल बिरह कै घाया । कह तेहि भूख कहाँ तेहि माया ?॥<br>
+
फेरे भेख रहै भा तपा । धूरि-लपेटा मानिक छपा ॥<br><br>
+
  
मुहमद कबि जौ बिरह भा ना तन रकत न माँसु ।<br>
 
जेइ मुख देखा तेइ हसा, सुनि तेहि आयउ आँसु ॥23॥<br><br>
 
  
सन नव सै सत्ताइस अहा । कथा अरंभ-बैन कबि कहा ॥<br>
 
सिंघलदीप पदमिनी रानी । रतनसेन चितउर गढ आनी ॥<br>
 
अलउद्दीन देहली सुलतानू । राघौ चेतन कीन्ह बखानू ॥<br>
 
सुना साहि गढ छेंका आई । हिंदू तुरुकन्ह भई लराई ॥<br>
 
आदि अंत जस गाथा अहै । लिखि भाखा चौपाई कहै ॥<br>
 
कवि बियास कवला रस-पूरी । दूरि सो नियर, नियर सो दूरी ॥<br>
 
नियरे दूर, फूल जस काँटा । दूरि जो नियरे, जस गुड चाँटा ॥<br><br>
 
 
भँवर आइ बनखँड सन कँवल कै बास ।<br>
 
दादुर बास न पावई भलहि जो आछै पास ॥24॥<br><br>
 
 
 
 
 
 
(1) उरेहा = चित्रकारी । सीउ = शीत । कीन्हेसि...कैलासू = उसी ज्योति अर्थात् पैगंबर
 
मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की । (कुरान की आयत) कैलास - बिहिश्त,
 
स्वर्ग । इस शब्द का प्रयोग जायसी ने बराबर इसी अर्थ में किया है ।
 
 
(2)खिखिंद = किष्किंधा । निरमरे = निर्मल । साउज = वे जानवर जिनका शिकार किया जाता
 
है । आरन = आरण्य । बाज = बिना । जैसे दीन दुख दारिद दलै को कृपा बारिधि बाज
 
 
(3)बेना = खस । भीमसेन, चीना = कमूर के भेद । लीबा = लोमडी । इंदुर=चूहा ।
 
चाँटी=चींटी । भौकस=दानव । सहस अठारह=अठारह हजार प्रकार के जीव (इसलाम के अनुसार)
 
  
 +
(1) उरेहा = चित्रकारी । सीउ = शीत । कीन्हेसि...कैलासू = उसी ज्योति अर्थात् पैगंबर मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की । (कुरान की आयत) कैलास - बिहिश्त, स्वर्ग । इस शब्द का प्रयोग जायसी ने बराबर इसी अर्थ में किया है ।
 +
(2)खिखिंद = किष्किंधा । निरमरे = निर्मल । साउज = वे जानवर जिनका शिकार किया जाता है । आरन = आरण्य । बाज = बिना । जैसे दीन दुख दारिद दलै को कृपा बारिधि बाज
 +
(3)बेना = खस । भीमसेन, चीना = कमूर के भेद । लीबा = लोमडी । इंदुर=चूहा । चाँटी=चींटी । भौकस=दानव । सहस अठारह=अठारह हजार प्रकार के जीव (इसलाम के अनुसार)
 
(4)भूँजहिं=भोगते हैं । बरियार=बलवान ।
 
(4)भूँजहिं=भोगते हैं । बरियार=बलवान ।
 
 
(5) उपाई=उत्पन्न की । आस हर=निराश ।
 
(5) उपाई=उत्पन्न की । आस हर=निराश ।
 
 
(6) भाँजै=भंजन करता है, नष्ट करता है ।
 
(6) भाँजै=भंजन करता है, नष्ट करता है ।
 
 
(7) सिरजना=रचना ।
 
(7) सिरजना=रचना ।
 
 
(8) बेहरा=अलग (बिहरना=फटना)।
 
(8) बेहरा=अलग (बिहरना=फटना)।
 
+
(11) पूनौ करा=पूर्निमा की कला । प्रथम....उपराजी=कुरान में लिखा है कि यह संसार मुहम्मद के लिये रचा गया, मुहम्मद न होते तो यह दुनिया न होती । जगत-बसीठ=संसार में ईश्वर का संदेसा लानेवाला , पैगंबर । लेख जोख=कर्मों का हिसाब । दुसरे ठाँव....वै लिखे = ईश्वर ने मुहम्मद को दूसरे स्थान पर लिखा अर्थात् अपने से दूसरा दरजा दिया । पाढत = पढंत, मंत्र, आयत । (12) सिदिक = सच्चा । दीन =धर्म, मत । बाना = रीति ,ढंग । संधान = खोज, उद्देश्य, लक्ष्य
(11) पूनौ करा=पूर्निमा की कला । प्रथम....उपराजी=कुरान
+
(13) छात = छत्र । पाट = सिंहासन । सूर =शेरशाह सूर जाति का पठान था । जुलकरन = जुलकरनैन, सिकंदर की एक अरबी उपाधि काँदौ = कर्दम, कीचड ।
में लिखा है कि यह संसार मुहम्मद के लिये रचा गया, मुहम्मद न होते तो यह दुनिया न  
+
(15) अहा = था । भई अहा = वाह वाह हुई । नाथ = नाक में पहनने की नथ । पारा = सकता है । निनारा = अलग 2(निर्णय)।
होती । जगत-बसीठ=संसार में ईश्वर का संदेसा लानेवाला , पैगंबर । लेख जोख=कर्मों का  
+
(16)मुख चाहा = मुँह देखता है। आगर =अग्र, बढकर । चाहि = अपेक्षाकृत (बढकर) । करा = कला। ससि चौदसि=पूर्णिमा (मुसलमान प्रथम चंद्रदर्शन अर्थात द्वितीया से तिथि गिनते हैं, इससे पूर्णिमा को उन की चौदहवीं तिथि पडती है ।)
हिसाब ।  
+
(17) डाँक = डंका । सौंह न दीन्हा = सामना न किया ।
दुसरे ठाँव....वै लिखे = ईश्वर ने मुहम्मद को दूसरे स्थान पर लिखा अर्थात्
+
(18) लेसा =जलाया । कंधार = कर्णधार, केवट । हाथी दीन्ह = हाथ दिया, बाँह का सहारा दिया । अँजोर = उजाला । खिखिंद = किष्किंध पर्वत ।
अपने से दूसरा दरजा दिया । पाढत = पढंत, मंत्र, आयत ।  
+
(12) सिदिक = सच्चा । दीन =धर्म, मत । बाना = रीति ,ढंग । संधान = खोज, उद्देश्य, लक्ष्य  
+
 
+
(13) छात = छत्र । पाट = सिंहासन । सूर =शेरशाह सूर जाति का पठान था ।
+
जुलकरन = जुलकरनैन, सिकंदर की एक अरबी उपाधि
+
काँदौ = कर्दम, कीचड ।  
+
 
+
(15) अहा = था । भई अहा = वाह वाह हुई । नाथ = नाक में
+
पहनने की नथ । पारा = सकता है । निनारा = अलग 2(निर्णय)।  
+
 
+
(16)मुख चाहा = मुँह देखता  
+
है। आगर =अग्र, बढकर । चाहि = अपेक्षाकृत (बढकर) । करा = कला। ससि चौदसि=पूर्णिमा
+
(मुसलमान प्रथम चंद्रदर्शन अर्थात द्वितीया से तिथि गिनते हैं, इससे पूर्णिमा को उन
+
की चौदहवीं तिथि पडती है ।)
+
 
+
(17) डाँक = डंका । सौंह न दीन्हा = सामना न किया ।  
+
 
+
(18) लेसा =जलाया ।  
+
कंधार = कर्णधार, केवट । हाथी दीन्ह = हाथ दिया, बाँह का सहारा दिया ।  
+
अँजोर = उजाला । खिखिंद = किष्किंध पर्वत ।  
+
 
+
 
(19) खेवक = खेनेवाला, मल्लाह ।
 
(19) खेवक = खेनेवाला, मल्लाह ।
 
+
(20) खेवा = नाव का बोझ । सुरखुरू = सुर्खरू, मुख पर तेज धारण करनेवाले । उताइल = जल्दी । मेरइ लिये = मिला लिया । सैयद राजे = सैयद राजे हामिदशाह । उन्ह हुत = उनके द्वारा ।
(20) खेवा = नाव का बोझ । सुरखुरू = सुर्खरू, मुख पर तेज धारण करनेवाले । उताइल =  
+
(21) नयनाहाँ = नयन से, आँख से । डाभ = आम के फल के मुँह पर का तीखा चेप ।चोपी ।
जल्दी । मेरइ लिये = मिला लिया । सैयद राजे = सैयद राजे हामिदशाह । उन्ह हुत = उनके द्वारा ।  
+
(22) मतिमाहाँ = मतिमान् । उभै = उठती है । जुझारू = योद्धा । चतुरदसा गुन = चौदह विद्याएँ ।
 
+
(23) बिनती भजा = बिनती की (करता हूँ)। टूट = त्रुटि, भूल । डगा = डुग्गी बजाने की लकडी । तारु = (क) तालू । (ख) ताला कूँजी = कुँजी । फेरे भेष = वेष बदलते हुए । तपा = तपस्वी ।
(21) नयनाहाँ = नयन से, आँख से । डाभ = आम के फल के मुँह पर का तीखा चेप ।चोपी ।  
+
(24) आछै = है । जैसे - कह कबीर कछु अछिलो न जहिया ।</poem>
 
+
(22) मतिमाहाँ = मतिमान् । उभै = उठती है । जुझारू = योद्धा । चतुरदसा गुन =
+
चौदह विद्याएँ ।
+
 
+
(23) बिनती भजा = बिनती की (करता हूँ)। टूट = त्रुटि, भूल । डगा = डुग्गी बजाने की  
+
लकडी । तारु = (क) तालू । (ख) ताला कूँजी = कुँजी । फेरे भेष = वेष बदलते हुए ।  
+
तपा = तपस्वी ।  
+
 
+
(24) आछै = है । जैसे - कह कबीर कछु अछिलो न जहिया ।
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16:39, 27 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण

सुमिरौं आदि एक करतारू । जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू ॥
कीन्हेसि प्रथम जोति परकासू । कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू ॥
कीन्हेसि अगिनि, पवन, जल खेहा । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा ॥
कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू । कीन्हेसि बरन बरन औतारू ॥
कीन्हेसि दिन, दिनअर, ससि, राती । कीन्हेसि नखत, तराइन-पाँती ॥
कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा । कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहिं माँहा ॥
कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा । कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा ॥

कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज न काहि ।
पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि ॥1॥

कीन्हेसि सात समुन्द अपारा । कीन्हेसि मेरु, खिखिंद पहारा ॥
कीन्हेसि नदी नार, औ झरना । कीन्हेसि मगर मच्छ बहु बरना ॥
कीन्हेसि सीप, मोती जेहि भरे । कीन्हेसि बहुतै नग निरमरे ॥
कीन्हेसि बनखँढ औ जरि मूरी । कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी ॥
कीन्हेसि साउज आरन रहईं । कीन्हेसि पंखि उडहिं जहँ चहईं ॥
कीन्हेसि बरन सेत ओ स्यामा । कीन्हेसि भूख नींद बिसरामा ॥
कीन्हेसि पान फूल बहु भौगू । कीन्हेसि बहु ओषद, बहु रोगू ॥

निमिख न लाग करत ओहि,सबै कीन्ह पल एक ।
गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक ॥2॥

कीन्हेसि अगर कसतुरी बेना । कीन्हेसि भीमसेन औ चीना ॥
कीन्हेसि नाग, जो मुख विष बसा । कीन्हेसि मंत्र, हरै जेहि डसा ॥
कीन्हेसि अमृत , जियै जो पाए । कीन्हेसि बिक्ख, मीचु जेहि खाए ॥
कीन्हेसि ऊख मीठ-रस-भरी । कीन्हेसि करू-बेल बहु फरी ॥
कीन्हेसि मधु लावै लै माखी । कीन्हेसि भौंर, पंखि औ पाँखी ॥
कीन्हेसि लोबा इंदुर चाँटी । कीन्हेसि बहुत रहहिं खनि माटी ॥
कीन्हेसि राकस भूत परेता । कीन्हेसि भोकस देव दएता ॥

कीन्हेसि सहस अठारह बरन बरन उपराजि ।
भुगुति दुहेसि पुनि सबन कहँ सकल साजना साजि ॥3॥

कीन्हेसि मानुष, दिहेसि बडाई । कीन्हेसि अन्न, भुगुति तेहिं पाई ॥
कीन्हेसि राजा भूँजहिं राजू । कीन्हेसि हस्ति घोर तेहि साजू ॥
कीन्हेसि दरब गरब जेहि होई । कीन्हेसि लोभ, अघाइ न कोई ॥
कीन्हेसि जियन , सदा सब चाहा । कीन्हेसि मीचु, न कोई रहा ॥
कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू । कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू ॥
कीन्हेसि कोइ भिखारि, कोइ धनी । कीन्हेसि सँपति बिपति पुनि घनी ॥

कीन्हेसि कोई निभरोसी, कीन्हेसि कोइ बरियार ।
छारहिं तें सब कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब छार ॥4॥

धनपति उहै जेहिक संसारू । सबै देइ निति, घट न भँडारू ॥
जावत जगत हस्ति औ चाँटा । सब कहँ भुगुति राति दिन बाँटा ॥
ताकर दीठि जो सब उपराहीं । मित्र सत्रु कोइ बिसरै नाहीं ॥
पखि पतंग न बिसरे कोई । परगट गुपुत जहाँ लगि होई ॥
भोग भुगुति बहु भाँति उपाई । सबै खवाई, आप नहिं खाई ॥
ताकर उहै जो खाना पियना । सब कहँ देइ भुगुति ओ जियना ॥
सबै आस-हर ताकर आसा । वह न काहु के आस निरासा ॥

जुग जुग देत घटा नहिं, उभै हाथ अस कीन्ह ।
और जो दीन्ह जगत महँ सो सब ताकर दीन्ह ॥5॥

आदि एक बरनौं सोइ राजा । आदि न अंत राज जेहि छाजा ॥
सदा सरबदा राज करेई । औ जेहि चहै राज तेहि देई ॥
छत्रहिं अछत, निछत्रहिं छावा । दूसर नाहिं जो सरवरि पावा ॥
परबत ढाह देख सब लोगू । चाँटहि करै हस्ति-सरि-जोगू ॥
बज्रांह तिनकहिं मारि उडाई । तिनहि बज्र करि देई बडाई ॥
ताकर कीन्ह न जानै कोई । करै सोइ जो चित्त न होई ॥
काहू भोग भुगुति सुख सारा । काहू बहुत भूख दुख मारा ॥

सबै नास्ति वह अहथिर, ऐस साज जेहि केर ।
एक साजे औ भाँजै , चहै सँवारै फेर ॥6॥

अलख अरूप अबरन सो कर्ता । वह सब सों, सब ओहि सों बर्ता ॥
परगट गुपुत सो सरबबिआपी । धरमी चीन्ह, न चीन्है पापी ॥
ना ओहि पूत न पिता न माता । ना ओहि कुटुब न कोई सँग नाता ॥
जना न काहु, न कोइ ओहि जना । जहँ लगि सब ताकर सिरजना ॥
वै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई । वह नहिं कीन्ह काहु कर होई ॥
हुत पहिले अरु अब है सोई । पुनि सो रहै रहै नहिं कोई ॥
और जो होइ सो बाउर अंधा । दिन दुइ चारि मरै करि धंधा ॥

जो चाहा सो कीन्हेसि, करै जो चाहै कीन्ह ।
बरजनहार न कोई, सबै चाहि जिउ दीन्ह ॥7॥

एहि विधि चीन्हहु करहु गियानू । जस पुरान महँ लिखा बखानू ॥
जीउ नाहिं, पै जियै गुसाईं । कर नाहीं, पै करै सबाईं ॥
जीभ नाहिं, पै सब किछु बोला । तन नाहीं, सब ठाहर डोला ॥
स्रवन नाहिं, पै सक किछु सुना । हिया नाहिं पै सब किछु गुना ॥
नयन नाहिं, पै सब किछु देखा । कौन भाँति अस जाइ बिसेखा ॥
है नाहीं कोइ ताकर रूपा । ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा ॥
ना ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊँ । रूप रेख बिनु निरमल नाऊ ॥

ना वह मिला न बेहरा, ऐस रहा भरिपूरि ।
दीठिवंत कहँ नीयरे, अंध मूरुखहिं दूरि ॥8॥

और जो दीन्हेसि रतन अमोला । ताकर मरम न जानै भोला ॥
दीन्हेसि रसना और रस भोगू । दीन्हेसि दसन जो बिहँसै जोगू ॥
दीन्हेसि जग देखन कहँ नैना । दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ बैना ॥
दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि कर-पल्लौ, बर बाहाँ ॥
दीन्हेसि चरन अनूप चलाहीं । सो जानइ जेहि दीन्हेसि नाहीं ॥
जोबन मरम जान पै बूढा । मिला न तरुनापा जग ढूँढाँ ॥
दुख कर मरम न जानै राजा । दुखी जान जा पर दुख बाजा ॥

काया-मरम जान पै रोगी, भोगी रहै निचिंत ।
सब कर मरम गोसाईं (जान) जो घट घट रहै निंत ॥9॥

अति अपार करता कर करना । बरनि न कोई पावै बरना ॥
सात सरग जौ कागद करई । धरती समुद दुहुँ मसि भरई ॥
जावत जग साखा बनढाखा । जावत केस रोंव पँखि -पाखा ॥
जावत खेह रेह दुनियाई । मेघबूँद औ गगन तराई ॥
सब लिखनी कै लिखु संसारा । लिखि न जाइ गति-समुद अपारा ॥
ऐस कीन्ह सब गुन परगटा । अबहुँ समुद महँ बूँद न घटा ॥
ऐस जानि मन गरब न होई । गरब करे मन बाउर सोई ॥

बड गुनवंत गोसाईं, चहै सँवारै बेग ।
औ अस गुनी सँवारे, जो गुन करै अनेग ॥10॥

कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा । नाम मुहम्मद पूनौ-करा ॥
प्रथम जोति बिधि ताकर साजी । औ तेहि प्रीति सिहिट उपराजी ॥
दीपक लेसि जगत कहँ दीन्हा । भा निरमल जग, मारग चीन्हा ॥
जौ न होत अस पुरुष उजारा । सूझि न परत पंथ अँधियारा ॥
दुसरे ढाँवँ दैव वै लिखे । भए धरमी जे पाढत सिखे ॥
जेहि नहिं लीन्ह जनम भरि नाऊँ । ता कहँ कीन्ह नरक महँ ठाउँ ॥
जगत बसीठ दई ओहिं कीन्हा । दुइ जग तरा नावँ जेहि लीन्हा ॥

गुन अवगुन बिधि पूछब, होइहिं लेख औ जोख ।
वह बिनउब आगे होइ, करब जगत कर मोख ॥11॥

चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ । जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ ॥
अबाबकर सिद्दीक सयाने । पहिले सिदिक दीन वइ आने ॥
पुनि सो उमर खिताब सुहाए । भा जग अदल दीन जो आए ॥
पुनि उसमान पंडित बड गुनी । लिखा पुरान जो आयत सुनी ॥
चौथे अली सिंह बरियारू । सौंहँ न कोऊ रहा जुझारू ॥
चारिउ एक मतै, एक बाना । एक पंथ औ एक सँधाना ॥
बचन एक जो सुना वइ साँचा । भा परवान दुहुँ जग बाँचा ॥

जो पुरान बिधि पठवा सोई पढत गरंथ ।
और जो भूले आवत सो सुनि लागे पंथ ॥12॥

सेरसाहि देहली-सुलतान । चारिउ खंड तपै जस भानू ॥
ओही छाज छात औ पाटा । सब राजै भुइँ धरा लिलाटा ॥
जाति सूर औ खाँडे सूरा । और बुधिवंत सबै गुन पूरा ॥
सूर नवाए नवखँड वई । सातउ दीप दुनी सब नई ॥
तह लगि राज खडग करि लीन्हा । इसकंदर जुलकरन जो कीन्हा ॥
हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी । जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी ॥
औ अति गरू भूमिपति भारी । टेक भूमि सब सिहिट सँभारी ॥

दीन्ह असीस मुहम्मद, करहु जुगहि जुग राज ।
बादसाह तुम जगत के जग तुम्हार मुहताज ॥13॥

बरनौं सूर भूमिपति राजा । भूमि न भार सहै जेहि साजा ॥
हय गय सेन चलै जग पूरी । परबत टूटि उडहिं होइ धूरी ॥
रेनु रैनि होइ रबिहिं गरासा । मानुख पंखि लेहिं फिरि बासा ॥
भुइँ उडि अंतरिक्ख मृतमंडा । खंड खंड धरती बरम्हंडा ॥
डोलै गगन, इंद्र डरि काँपा । बासुकि जाइ पतारहि चाँपा ॥
मेरु धसमसै, समुद सुखाई । बन खँड टूटि खेह मिल जाई ॥
अगिलिहिं कहँ पानी लेइ बाँटा । पछिलहिं कहँ नहिं काँदौं आटा ॥

जो गढ नएउ न काहुहि चलत होइ सो चूर ।
जब वह चढै भूमिपति सेर साहि जग सूर ॥14॥

अदल कहौं पुहुमी जस होई । चाँटा चलत न दुखवै कोई ॥
नौसेरवाँ जो आदिल कहा । साहि अदल-सरि सोउ न अहा ॥
अदल जो कीन्ह उमर कै नाई । भइ अहा सगरी दुनियाई ॥
परी नाथ कोइ छुवै न पारा । मारग मानुष सोन उछारा ॥
गऊ सिंह रेंगहि एक बाटा । दूनौ पानि पियहिं एक घाटा ॥
नीर खीर छानै दरबारा । दूध पानि सब करै निनारा ॥
धरम नियाव चलै; सत भाखा । दूबर बली एक सम राखा ॥

सब पृथवी सीसहिं नई जोरि जोरि कै हाथ ।
गंग-जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ ॥15॥

पुनि रूपवंत बखानौं काहा । जावत जगत सबै मुख चाहा ॥
ससि चौदसि जो दई सँवारा । ताहू चाहि रूप उँजियारा ॥
पाप जाइ जो दरसन दीसा । जग जुहार कै देत असीसा ॥
जैस भानु जग ऊपर तपा । सबै रूप ओहि आगे छपा ॥
अस भा सूर पुरुष निरमरा । सूर चाहि दस आगर करा ॥
सौंह दीठि कै हेरि न जाई । जेहि देखा सो रहा सिर नाई ॥
रूप सवाई दिन दिन चढा ।बिधि सुरूप जग ऊपर गढा ॥

रूपवंत मनि माथे, चंद्र घाटि वह बाढि ।
मेदिनि दरस लोभानी असतुति बिनवै ठाढि ॥16॥

पुनि दातार दई जग कीन्हा । अस जग दान न काहू दीन्हा ॥
बलि विक्रम दानी बड कहे । हातिम करन तियागी अहे ॥
सेरसाहि सरि पूज न कोऊ । समुद सुमेर भँडारी दोऊ ॥
दान डाँक बाजै दरबारा । कीरति गई समुंदर पारा ॥
कंचन परसि सूर जग भयऊ । दारिद भागि दिसंतर गयऊ ॥
जो कोइ जाइ एक बेर माँगा । जनम न भा पुनि भूखा नागा ॥
दस असमेध जगत जेइ कीन्हा । दान-पुन्य-सरि सौंह न दीन्हा ॥

ऐस दानि जग उपजा सेरसाहि सुलतान ।
ना अस भयउ न होइहि, ना कोइ देइ अस दान ॥17॥

सैयद असरफ पीर पियारा । जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उँजियारा ॥
लेसा हियें प्रेम कर दीया । उठी जोति भा निरमल हीया ॥
मारग हुत अँधियार जो सूझा । भा अँजोर, सब जाना बूझा ॥
खार समुद्र पाप मोर मेला । बोहित -धरम लीन्ह कै चेला ॥
उन्ह मोर कर बूडत कै गहा । पायों तीर घाट जो अहा ॥
जाकहँ ऐस होइ कंधारा । तुरत बेगि सो पावै पारा ॥
दस्तगीर गाढे कै साथी । बह अवगाह, दीन्ह तेहि हाथी ॥

जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद ।
वै मखदूम जगत के, हौं ओहि घर कै बाँद ॥18॥

ओहि घर रतन एक निरमरा । हाजी शेख सबै गुन भरा ॥
तेहि घर दुइ दीपक उजियारे । पंथ देइ कहँ दैव सँवारे ॥
सेख मुहम्मद पून्यो-करा । सेख कमाल जगत निरमरा ॥
दुऔ अचल धुव डोलहि नाहीं । मेरु खिखिद तिन्हहुँ उपराहीं ॥
दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं । कीन्ह खंभ दुइ जग के ताईं ॥
दुहुँ खंभ टेके सब महीं । दुहुँ के भार सिहिट थिर रही ॥
जेहि दरसे औ परसे पाया । पाप हरा, निरमल भइ काया ॥

मुहमद तेइ निचिंत पथ जेहि सग मुरसिद पीर ।
जेहिके नाव औ खेवक बेगि लागि सो तीर ॥19॥


गुरु मोहदी खेवक मै सेवा । चलै उताइल जेहिं कर खेवा ॥
अगुवा भयउ सेख बुरहानू । पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू ॥
अहलदाद भल तेहि कर गुरू । दीन दुनी रोसन सुरखुरू ॥
सैयद मुहमद कै वै चेला । सिद्द-पुरुष-संगम जेहि खेला ॥
दानियाल गुरु पंथ लखाए । हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए ॥
भए प्रसन्न ओहि हजरत ख्वाजे । लिये मेरइ जहँ सैयद राजे ॥
ओहि सेवत मैं पाई करनी । उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी ॥

वै सुगुरू, हौं चेला , नित बिनवौं भा चेर ।
उन्ह हुत देखै पायउँ दरस गोसाईं केर ॥20॥

एक नयन कबि मुहमद गुनी । सोइ बिमोहा जेहि कबि सुनी ॥
चाँद जैस जग विधि औतारा । दीन्ह कलंक, कीन्ह उजियारा ॥
जग सूझा एकै नयनाहाँ । उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ ॥
जौ लहि अंबहिं डाभ न होई । तौ लहि सुगँध बसाइ न सोई ॥
कीन्ह समुद्र पानि जो खारा । तौ अति भयउ असूझ अपारा ॥
जौ सुमेरु तिरसूल बिनासा । भा कंचन-गिरि, लाग अकासा ॥
जौ लहि घरी कलंक न परा । काँच होइ नहिं कंचन-करा ॥

एक नयन जस दरपन औ निरमल तेहि भाउ ।
सब रूपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं कै चाउ ॥21॥

चारि मीन कबि मुहमद पाए । जोरि मिताई सिर पहुँचाए ॥
युसूफ मलिक पँडित बहु ज्ञानी । पहिले भेद-बात वै जानी ॥
पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ । खाँडे-दान उभै निति बाहाँ ॥
मियाँ सलौने सिंघ बरियारू । बीर खेतरन खडग जुझारू ॥
सेख बडे, बड सिद्ध बखाना । किए आदेस सिद्ध बड माना ।
चारिउ चतुरदसा गुन पढे । औ संजोग गोसाईं गढे ॥
बिरिछ होइ जौ चंदन पासा । चंदन होइ बेधि तेहि बासा ॥

मुहमद चारिउ मीत मिलि भए जो एकै चित्त ।
एहि जग साथ जो निबहा, ओहि जग बिछुरन कित्त ?॥22॥

जायस नगर धरम अस्थानू । तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू ॥
औ बिनती पँडितन सन भजा । टूट सँवारहु, नेरवहु सजा ॥
हौं पंडितन केर पछलागा । किछु कहि चला तबल देइ डगा ॥
हिय भंडार नग अहै जो पूजी । खोली जीभ तारू कै कूँजी ॥
रतन-पदारथ बोल जो बोला । सुरस प्रेम मधु भरा अमोला ॥
जेहि के बोल बिरह कै घाया । कह तेहि भूख कहाँ तेहि माया ?॥
फेरे भेख रहै भा तपा । धूरि-लपेटा मानिक छपा ॥

मुहमद कबि जौ बिरह भा ना तन रकत न माँसु ।
जेइ मुख देखा तेइ हसा, सुनि तेहि आयउ आँसु ॥23॥

सन नव सै सत्ताइस अहा । कथा अरंभ-बैन कबि कहा ॥
सिंघलदीप पदमिनी रानी । रतनसेन चितउर गढ आनी ॥
अलउद्दीन देहली सुलतानू । राघौ चेतन कीन्ह बखानू ॥
सुना साहि गढ छेंका आई । हिंदू तुरुकन्ह भई लराई ॥
आदि अंत जस गाथा अहै । लिखि भाखा चौपाई कहै ॥
कवि बियास कवला रस-पूरी । दूरि सो नियर, नियर सो दूरी ॥
नियरे दूर, फूल जस काँटा । दूरि जो नियरे, जस गुड चाँटा ॥

भँवर आइ बनखँड सन कँवल कै बास ।
दादुर बास न पावई भलहि जो आछै पास ॥24॥



(1) उरेहा = चित्रकारी । सीउ = शीत । कीन्हेसि...कैलासू = उसी ज्योति अर्थात् पैगंबर मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की । (कुरान की आयत) कैलास - बिहिश्त, स्वर्ग । इस शब्द का प्रयोग जायसी ने बराबर इसी अर्थ में किया है ।
(2)खिखिंद = किष्किंधा । निरमरे = निर्मल । साउज = वे जानवर जिनका शिकार किया जाता है । आरन = आरण्य । बाज = बिना । जैसे दीन दुख दारिद दलै को कृपा बारिधि बाज
(3)बेना = खस । भीमसेन, चीना = कमूर के भेद । लीबा = लोमडी । इंदुर=चूहा । चाँटी=चींटी । भौकस=दानव । सहस अठारह=अठारह हजार प्रकार के जीव (इसलाम के अनुसार)
(4)भूँजहिं=भोगते हैं । बरियार=बलवान ।
(5) उपाई=उत्पन्न की । आस हर=निराश ।
(6) भाँजै=भंजन करता है, नष्ट करता है ।
(7) सिरजना=रचना ।
(8) बेहरा=अलग (बिहरना=फटना)।
(11) पूनौ करा=पूर्निमा की कला । प्रथम....उपराजी=कुरान में लिखा है कि यह संसार मुहम्मद के लिये रचा गया, मुहम्मद न होते तो यह दुनिया न होती । जगत-बसीठ=संसार में ईश्वर का संदेसा लानेवाला , पैगंबर । लेख जोख=कर्मों का हिसाब । दुसरे ठाँव....वै लिखे = ईश्वर ने मुहम्मद को दूसरे स्थान पर लिखा अर्थात् अपने से दूसरा दरजा दिया । पाढत = पढंत, मंत्र, आयत । (12) सिदिक = सच्चा । दीन =धर्म, मत । बाना = रीति ,ढंग । संधान = खोज, उद्देश्य, लक्ष्य
(13) छात = छत्र । पाट = सिंहासन । सूर =शेरशाह सूर जाति का पठान था । जुलकरन = जुलकरनैन, सिकंदर की एक अरबी उपाधि काँदौ = कर्दम, कीचड ।
(15) अहा = था । भई अहा = वाह वाह हुई । नाथ = नाक में पहनने की नथ । पारा = सकता है । निनारा = अलग 2(निर्णय)।
(16)मुख चाहा = मुँह देखता है। आगर =अग्र, बढकर । चाहि = अपेक्षाकृत (बढकर) । करा = कला। ससि चौदसि=पूर्णिमा (मुसलमान प्रथम चंद्रदर्शन अर्थात द्वितीया से तिथि गिनते हैं, इससे पूर्णिमा को उन की चौदहवीं तिथि पडती है ।)
(17) डाँक = डंका । सौंह न दीन्हा = सामना न किया ।
(18) लेसा =जलाया । कंधार = कर्णधार, केवट । हाथी दीन्ह = हाथ दिया, बाँह का सहारा दिया । अँजोर = उजाला । खिखिंद = किष्किंध पर्वत ।
(19) खेवक = खेनेवाला, मल्लाह ।
(20) खेवा = नाव का बोझ । सुरखुरू = सुर्खरू, मुख पर तेज धारण करनेवाले । उताइल = जल्दी । मेरइ लिये = मिला लिया । सैयद राजे = सैयद राजे हामिदशाह । उन्ह हुत = उनके द्वारा ।
(21) नयनाहाँ = नयन से, आँख से । डाभ = आम के फल के मुँह पर का तीखा चेप ।चोपी ।
(22) मतिमाहाँ = मतिमान् । उभै = उठती है । जुझारू = योद्धा । चतुरदसा गुन = चौदह विद्याएँ ।
(23) बिनती भजा = बिनती की (करता हूँ)। टूट = त्रुटि, भूल । डगा = डुग्गी बजाने की लकडी । तारु = (क) तालू । (ख) ताला कूँजी = कुँजी । फेरे भेष = वेष बदलते हुए । तपा = तपस्वी ।
(24) आछै = है । जैसे - कह कबीर कछु अछिलो न जहिया ।