"प्रेम प्रताप / रामचंद्र शुक्ल" के अवतरणों में अंतर
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20:02, 2 जून 2013 के समय का अवतरण
जग के सबही काज प्रेम ने सहज बनाये,
जीवन सुखमय किया शांति के स्रोत बहाये।
द्वेष राग को मेटि सभी में ऐक्य बढ़ाया,
धन्य प्रेम तव शक्ति जगत को स्वर्ग बनाया ।।1
गगन बीच रवि चंद्र और जितने तारे हैं,
सौर जगत अगणित जो प्रभु ने विस्तारे हैं।
सबको निज निज ठौर सदा प्रस्थित करवाना,
जिस आकर्षण शक्ति प्रेम ने ही हैं जाना ।।2
दंभ आदि को मेटि हृदय को कोमल करना,
छल समूल करि नष्ट सत्य शुभ पथ पर चलना।
मेरा तेरा छोड़ विश्व को बंधु बनाना,
प्रेम! तुम्हीं में शक्ति सीख इतनी सिखलाना ।।3
बालक का सा सरल हृदय प्रेमी का करते,
चंचलता पाखंड सभी क्षण में तुम हरते।
भीरु वीर को करो भीरु को वीर बनाते,
प्रेम! विश्व में दृश्य सभी अद्भुत दिखलाते ।।4
प्रणय रूप में कहो कौन कमनीय क्रांति हैं,
उपजाती जो हृदय बीच शुभ सुखद शांति हैं।
अद्भुत अनुपम शक्ति पूर्ण कर देती तन में,
धैर्य भक्ति संचार सदा जो करती मन में ।।5
सागर में सब नदी जाये जग की मिलती हैं,
होते ही शशि उदय कुमुदिनी भी खिलती हैं।
आ आ देते प्राण कीट दीपक के ऊपर।
हैं पूरा अधिकार प्रेम! तेरा जग ऊपर ।।6
दहन दु:ख का हो जाता हैं पलक मात्रा में,
पूर्ण ध्यान जब जग जाता हैं प्रेम-पात्र में।
प्रतिमा लगती प्रेम-पात्र की कैसी प्यारी।
प्रेम! प्रेम! हे प्रेम!!! जाउँ तेरी बलिहारी ।।7
('लक्ष्मी,' जनवरी, 1913)