भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दशहरा / शर्मिष्ठा पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= }} {{KKCatKavita}} <poem> परिवर्तनों के युग में......' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=
+
|रचनाकार=शर्मिष्ठा पाण्डेय
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}

11:14, 2 अगस्त 2013 के समय का अवतरण

परिवर्तनों के युग में...
कुछ नया होगा...
अब,दशहरे में...
नहीं जलेगा...
वह,दुराचारी,अनाचारी...
नराधम,दस मुखों वाला...
रावण.....
उसका वंश नहीं मिटा...
अमिट है...
बाँट दिए हैं उसने...
अपने गुण...
संस्कार...
एक मुख वालों में...
सत्तासीन हैं...
सँभालते हैं...
अपने पूर्वज की धरोहर...
और स्वतः ही...
संचित रखते हैं...
अपनी नाभि में अमृत...
रुपी विष...
जो,उन्हें जीवित रखता...
सदैव...
और अब...
बढती ही जाती...
उनकी वंश बेल...
दुगनी,तिगुनी...
रक्तबीज के समान...
और,
प्रवंचनाओं,धारणाओं...
के पत्थरों...
से,टूट गया है...
वह खप्पर...
जो,पान करता था...
उसके रक्त का...
और,पनपने न देता...
अन्य रक्तबीज...
अब आना होगा...
असंख्य रामों को...
क्यूंकि...
अब प्रत्येक...
एक मुखी का वध...
करना होगा...
दस दस रामों को...
और...
कल्पों तक...
चलता रहेगा त्रेता...
अन्य युग...
ऊँघ रहे...
करेंगे और प्रतीक्षा...
अपनी बारी की श.पा. ...
क्यूंकि...रावण ....
अभी मरा नहीं....