"प्रार्थना की कड़ी / धर्मवीर भारती" के अवतरणों में अंतर
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− | प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी | + | :प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी |
− | बाँध देती है | + | बाँध देती है, तुम्हारा मन, हमारा मन, |
− | तुम्हारा मन, हमारा मन, | + | फिर किसी अनजान आशीर्वाद में-डूबन |
− | फिर किसी अनजान आशीर्वाद में- | + | :मिलती मुझे राहत बड़ी! |
− | डूबन | + | |
− | मिलती मुझे राहत बड़ी! | + | |
− | प्रात सद्य:स्नात | + | प्रात सद्य:स्नात कन्धों पर बिखेरे केश |
− | कन्धों पर बिखेरे केश | + | आँसुओं में ज्यों धुला वैराग्य का सन्देश |
− | आँसुओं में ज्यों | + | चूमती रह-रह बदन को अर्चना की धूप |
− | धुला वैराग्य का सन्देश | + | यह सरल निष्काम पूजा-सा तुम्हारा रूप |
− | चूमती रह-रह | + | जी सकूँगा सौ जनम अँधियारियों में, |
− | बदन को अर्चना की धूप | + | :यदि मुझे मिलती रहे |
− | यह सरल निष्काम | + | :काले तमस की छाँह में |
− | पूजा-सा तुम्हारा रूप | + | |
− | जी सकूँगा सौ जनम अँधियारियों में, यदि मुझे | + | |
− | मिलती रहे | + | |
− | काले | + | |
ज्योति की यह एक अति पावन घड़ी! | ज्योति की यह एक अति पावन घड़ी! | ||
प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी! | प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी! | ||
− | चरण वे जो | + | चरण वे जो लक्ष्य तक चलने नहीं पाये |
− | लक्ष्य तक चलने नहीं पाये | + | वे समर्पण जो न होठों तक कभी आये |
− | वे समर्पण जो न | + | कामनाएँ वे नहीं जो हो सकीं पूरी- |
− | होठों तक कभी आये | + | घुटन, अकुलाहट, विवशता, दर्द, मजबूरी- |
− | कामनाएँ वे नहीं | + | :जन्म-जन्मों की अधूरी साधना, |
− | जो हो सकीं पूरी- | + | पूर्ण होती है किसी मधु-देवता की बाँह में! |
− | घुटन, अकुलाहट, | + | :ज़िन्दगी में जो सदा झूठी पड़ी- |
− | विवशता, दर्द, मजबूरी- | + | :प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी! |
− | जन्म-जन्मों की अधूरी साधना, पूर्ण होती है | + | |
− | किसी मधु-देवता | + | |
− | की बाँह में! | + | |
− | ज़िन्दगी में जो सदा झूठी पड़ी- | + | |
− | प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी! | + | |
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12:13, 16 जनवरी 2015 का अवतरण
प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी
बाँध देती है, तुम्हारा मन, हमारा मन,
फिर किसी अनजान आशीर्वाद में-डूबन
मिलती मुझे राहत बड़ी!
प्रात सद्य:स्नात कन्धों पर बिखेरे केश
आँसुओं में ज्यों धुला वैराग्य का सन्देश
चूमती रह-रह बदन को अर्चना की धूप
यह सरल निष्काम पूजा-सा तुम्हारा रूप
जी सकूँगा सौ जनम अँधियारियों में,
यदि मुझे मिलती रहे
काले तमस की छाँह में
ज्योति की यह एक अति पावन घड़ी!
प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी!
चरण वे जो लक्ष्य तक चलने नहीं पाये
वे समर्पण जो न होठों तक कभी आये
कामनाएँ वे नहीं जो हो सकीं पूरी-
घुटन, अकुलाहट, विवशता, दर्द, मजबूरी-
जन्म-जन्मों की अधूरी साधना,
पूर्ण होती है किसी मधु-देवता की बाँह में!
ज़िन्दगी में जो सदा झूठी पड़ी-
प्रार्थना की एक अनदेखी कड़ी!