भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"राहज़न आदमी रहनुमा आदमी / साग़र सिद्दीक़ी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सफ़ी औरंगाबादी }} {{KKCatGhazal}} <poem> राहज़न ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=सफ़ी औरंगाबादी
+
|रचनाकार=साग़र सिद्दीक़ी
 
}}
 
}}
 
{{KKCatGhazal}}
 
{{KKCatGhazal}}

16:58, 5 दिसम्बर 2014 के समय का अवतरण

राहज़न आदमी रहनुमा आदमी
बार-हा बन चुका है ख़ुदा आदमी

हा-ए-तख़्लीक़ की कार-पर्दाज़ियाँ
ख़ाक सी चीज़ को कह दिया आदमी

खुल गए जन्नतों के वहाँ ज़ाइचे
दो क़दम झूम कर जब चला आदमी

ज़िंदगी ख़ानक़ाह-ए-शहूद-ओ-बक़ा
और लौह-ए-मज़ार-ए-फ़ना आदमी

सुब्ह-दम चाँद की रूख़्सती का समाँ
जिस तरह बहर में डूबता आदमी

कुछ फरिश्तों की तक़्दीस के वास्ते
सह गया आदमी की जफ़ा आदमी

गूँजती ही रहेगी फ़लक-दर-फ़लक
है मशिय्यत की ऐसी सदा आदमी

आस की मूरतें पूजते पूजते
एक तस्वीर सी बन गया आदमी