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"कितनी अतृप्ति है / गोपालदास "नीरज"" के अवतरणों में अंतर
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− | मुखरित हो पड़ता है सहसा, | + | पर फिर विष पीने की इच्छा क्यों जागृत होती है मन में ? |
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17:55, 10 सितम्बर 2012 का अवतरण
कितनी अतृप्ति है...
कितनी अतृप्ति है जीवन में ?
मधु के अगणित प्याले पीकर,
कहता जग तृप्त हुआ जीवन,
मुखरित हो पड़ता है सहसा,
मादकता से कण-कण प्रतिक्षण,
पर फिर विष पीने की इच्छा क्यों जागृत होती है मन में ?
कवि का विह्वल अंतर कहता, पागल, अतृप्ति है जीवन में।