"बुझा हुआ दीपक / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'" के अवतरणों में अंतर
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मुसकाता रहा बुझते-बुझते हँसते-हँसते सर जाने दिया । | मुसकाता रहा बुझते-बुझते हँसते-हँसते सर जाने दिया । | ||
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+ | जगती का अन्धेरा मिटा कर आँखों में आँख की पुतली होके समाए । | ||
+ | निज ज्योति से दे न्वज्योति जहान को अन्त में ज्योति में ज्योति मिलाए। | ||
+ | जलना हो जिसे वो जले मुझ-सा बुझना हो जिसे मुझ-सा बुझ जाए ।। | ||
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14:52, 12 जनवरी 2014 का अवतरण
(1)
करने चले तंग पतंग जला कर मिटी में मिट्टी मिला चुका हूँ ।
तम-तोम का काम तमाम किया दुनिया को प्रकाश में ला चुका हूँ ।
नहीं चाह सनेही सनेह की और सनेह में जी मैं जला चुका हूँ ।
बुझने का मुझे कुछ दुःख नहीं पथ सैकड़ों को दिखला चुका हूँ ।।
(2)
लघु मिट्टी का पात्र था स्नेह भरा जितना उसमें भर जाने दिया ।
धर बत्ती हिय पर कोई गया चुपचाप उसे धर जाने दिया ।
पर हेतु रहा जलता मैं निशा-भर मृत्यु का भी डर जाने दिया ।
मुसकाता रहा बुझते-बुझते हँसते-हँसते सर जाने दिया ।
(3)
परवा न हवा की करे कुछ भी भिड़े आके जो कीट पतंग जलाए ।
जगती का अन्धेरा मिटा कर आँखों में आँख की पुतली होके समाए ।
निज ज्योति से दे न्वज्योति जहान को अन्त में ज्योति में ज्योति मिलाए।
जलना हो जिसे वो जले मुझ-सा बुझना हो जिसे मुझ-सा बुझ जाए ।।