"वे और हम / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर
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− | + | चाहते हैं यह तरैया तोड़ लें। | |
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बेतरह मुँह की मगर हैं खा रहे। | बेतरह मुँह की मगर हैं खा रहे। | ||
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हैं उचक कर हम सरग छूने चले। | हैं उचक कर हम सरग छूने चले। | ||
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पर रसातल को चले हैं जा रहे। | पर रसातल को चले हैं जा रहे। | ||
क्यों सुझाये भी नहीं है सूझता। | क्यों सुझाये भी नहीं है सूझता। | ||
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बीज हैं बरबादियों के बो गये। | बीज हैं बरबादियों के बो गये। | ||
− | + | क्यों अँधेरा आँख पर है छा गया। | |
− | क्यों | + | किस लिए हम लोग अंधे हो गये। |
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− | किस लिए हम लोग | + | |
एक है जाति के लिए जीता। | एक है जाति के लिए जीता। | ||
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दूसरा जाति लग नहीं लगता। | दूसरा जाति लग नहीं लगता। | ||
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एक है हो रहा सजग दिन दिन। | एक है हो रहा सजग दिन दिन। | ||
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दूसरा जाग कर नहीं जगता। | दूसरा जाग कर नहीं जगता। | ||
हैं लटू हम यूनिटी पर हो रहे। | हैं लटू हम यूनिटी पर हो रहे। | ||
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और वह लट बेतरह है पिट रही। | और वह लट बेतरह है पिट रही। | ||
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सुधा गँवा सारी हमारी जाति अब। | सुधा गँवा सारी हमारी जाति अब। | ||
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है हमारे ही मिटाये मिट रही। | है हमारे ही मिटाये मिट रही। | ||
जाति जीतें सुन उमग हैं वे रहे। | जाति जीतें सुन उमग हैं वे रहे। | ||
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जाति - दुखड़े देख हम ऊबे नहीं। | जाति - दुखड़े देख हम ऊबे नहीं। | ||
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आज दिन सूबे चला हैं वे रहे। | आज दिन सूबे चला हैं वे रहे। | ||
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हैं हमारे पास मनसूबे नहीं। | हैं हमारे पास मनसूबे नहीं। | ||
जाति अपनी सँभालते हैं वे। | जाति अपनी सँभालते हैं वे। | ||
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हम नहीं हैं सँभाल सकते घर। | हम नहीं हैं सँभाल सकते घर। | ||
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क्या चले साथ दौड़ने उन के। | क्या चले साथ दौड़ने उन के। | ||
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जो कि हैं उड़ रहे लगा कर पर। | जो कि हैं उड़ रहे लगा कर पर। | ||
क्यों न मुँह के बल गिरें खा ठोकरें। | क्यों न मुँह के बल गिरें खा ठोकरें। | ||
− | + | छा अँधेरा है गया आँखों तले। | |
− | छा | + | |
− | + | ||
हो न पाये पाँव पर अपने खड़े। | हो न पाये पाँव पर अपने खड़े। | ||
− | + | साथ देने चाल वालों का चले। | |
− | साथ देने | + | |
लुट रहा है घर, सगे हैं पिट रहे। | लुट रहा है घर, सगे हैं पिट रहे। | ||
− | |||
खोलते मुँह बेतरह हैं डर रहे। | खोलते मुँह बेतरह हैं डर रहे। | ||
− | |||
मौत के मुँह में चले हैं जा रहे। | मौत के मुँह में चले हैं जा रहे। | ||
− | |||
हैं मगर हम दूसरों पर मर रहे। | हैं मगर हम दूसरों पर मर रहे। | ||
दौड़ उन की है बिराने देस तक। | दौड़ उन की है बिराने देस तक। | ||
− | |||
घूम फिर जब हम रहे तब घर रहे। | घूम फिर जब हम रहे तब घर रहे। | ||
− | |||
हम छलाँगें मार हैं पाते नहीं। | हम छलाँगें मार हैं पाते नहीं। | ||
− | |||
वह छलाँगें हैं छगूनी भर रहे। | वह छलाँगें हैं छगूनी भर रहे। | ||
वह कहीं हो पर गले का हार है। | वह कहीं हो पर गले का हार है। | ||
− | |||
इस तरह वे जाति-रंग में हैं रँगे। | इस तरह वे जाति-रंग में हैं रँगे। | ||
− | |||
रंगतें इतनी हमारी हैं बुरी। | रंगतें इतनी हमारी हैं बुरी। | ||
− | |||
हैं सगे भी बन नहीं सकते सगे। | हैं सगे भी बन नहीं सकते सगे। | ||
है पसीना जाति का गिरता जहाँ। | है पसीना जाति का गिरता जहाँ। | ||
− | |||
वे वहाँ अपना गिराते हैं लहू। | वे वहाँ अपना गिराते हैं लहू। | ||
− | + | जाति - लहू चूस लेने के लिए। | |
− | जाति - | + | |
− | + | ||
कब नहीं हम जिन्द बनते हूबहू। | कब नहीं हम जिन्द बनते हूबहू। | ||
जाति-दुख से वे दुखी हैं हो रहे। | जाति-दुख से वे दुखी हैं हो रहे। | ||
− | |||
क्यों न वह हो दूर देसों में बसी। | क्यों न वह हो दूर देसों में बसी। | ||
− | |||
देख कर भी देख हम पाते नहीं। | देख कर भी देख हम पाते नहीं। | ||
− | + | जा रही है जाति दलदल में धँसी। | |
− | जा रही है जाति दलदल में | + | |
बावलों जैसा बना उन को दिया। | बावलों जैसा बना उन को दिया। | ||
− | |||
दूर से आ जाति-दुख के नाम ने। | दूर से आ जाति-दुख के नाम ने। | ||
− | |||
आँख में उतरा नहीं मेरे लहू। | आँख में उतरा नहीं मेरे लहू। | ||
− | |||
जाति का होता लहू है सामने। | जाति का होता लहू है सामने। | ||
जाति को ऊँचा उठाने के लिए। | जाति को ऊँचा उठाने के लिए। | ||
− | |||
बाग अपनी कब न वे खींचे रहे। | बाग अपनी कब न वे खींचे रहे। | ||
− | |||
नीच बन आँखें बहुत नीची किये। | नीच बन आँखें बहुत नीची किये। | ||
− | |||
हम गिराते जाति को नीचे रहे। | हम गिराते जाति को नीचे रहे। | ||
अठकपालीपन दिखा हैं वे रहे। | अठकपालीपन दिखा हैं वे रहे। | ||
− | |||
है अजब औंधी हमारी खोपड़ी। | है अजब औंधी हमारी खोपड़ी। | ||
− | |||
वे महल अपने खड़े हैं कर रहे। | वे महल अपने खड़े हैं कर रहे। | ||
− | |||
हम रहे हैं फूँक अपनी झोंपड़ी। | हम रहे हैं फूँक अपनी झोंपड़ी। | ||
हों भले ही वे विदेसों में बसे। | हों भले ही वे विदेसों में बसे। | ||
− | |||
प्यार में हैं जाति के पूरे सने। | प्यार में हैं जाति के पूरे सने। | ||
− | |||
बात अपनी बेकसी की क्या कहें। | बात अपनी बेकसी की क्या कहें। | ||
− | |||
देस में भी हम विदेसी हैं बने। | देस में भी हम विदेसी हैं बने। | ||
− | धाक अपनी | + | धाक अपनी बँधा हैं जग में रहे। |
− | + | ||
एक झंडे के तले वे हो खड़े। | एक झंडे के तले वे हो खड़े। | ||
− | |||
फूट है घर में हमारे पड़ रही। | फूट है घर में हमारे पड़ रही। | ||
− | |||
हैं लुढ़कते जा रहे घी के घड़े। | हैं लुढ़कते जा रहे घी के घड़े। | ||
− | + | धर्म पर हो रहे निछावर हैं। | |
− | + | ||
आज वे बोल बोल कर हुर्रे। | आज वे बोल बोल कर हुर्रे। | ||
− | |||
हम अधूरे बुरे धुरे पकड़े। | हम अधूरे बुरे धुरे पकड़े। | ||
+ | धर्म के हैं उड़ा रहे धुर्रे। | ||
− | + | क्यों न हों बहु देस में फ़ैले हुए। | |
− | + | हैं मगर वे एक बंधन में बँधे। | |
− | क्यों न हों बहु देस में | + | साध रहते देस में हम से नहीं। |
− | + | एकता के मंत्र साधे से सधे। | |
− | हैं मगर वे एक | + | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | एकता के | + | |
दूसरों की जड़ जमाने के लिए। | दूसरों की जड़ जमाने के लिए। | ||
− | |||
क्यों बहक कर आप अपनी जड़ खनें। | क्यों बहक कर आप अपनी जड़ खनें। | ||
− | |||
हम नहीं कहते कि लोहा लोग लें। | हम नहीं कहते कि लोहा लोग लें। | ||
− | |||
पर न चुम्बक के लिए लोहा बनें। | पर न चुम्बक के लिए लोहा बनें। | ||
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18:42, 23 मार्च 2014 के समय का अवतरण
चाहते हैं यह तरैया तोड़ लें।
बेतरह मुँह की मगर हैं खा रहे।
हैं उचक कर हम सरग छूने चले।
पर रसातल को चले हैं जा रहे।
क्यों सुझाये भी नहीं है सूझता।
बीज हैं बरबादियों के बो गये।
क्यों अँधेरा आँख पर है छा गया।
किस लिए हम लोग अंधे हो गये।
एक है जाति के लिए जीता।
दूसरा जाति लग नहीं लगता।
एक है हो रहा सजग दिन दिन।
दूसरा जाग कर नहीं जगता।
हैं लटू हम यूनिटी पर हो रहे।
और वह लट बेतरह है पिट रही।
सुधा गँवा सारी हमारी जाति अब।
है हमारे ही मिटाये मिट रही।
जाति जीतें सुन उमग हैं वे रहे।
जाति - दुखड़े देख हम ऊबे नहीं।
आज दिन सूबे चला हैं वे रहे।
हैं हमारे पास मनसूबे नहीं।
जाति अपनी सँभालते हैं वे।
हम नहीं हैं सँभाल सकते घर।
क्या चले साथ दौड़ने उन के।
जो कि हैं उड़ रहे लगा कर पर।
क्यों न मुँह के बल गिरें खा ठोकरें।
छा अँधेरा है गया आँखों तले।
हो न पाये पाँव पर अपने खड़े।
साथ देने चाल वालों का चले।
लुट रहा है घर, सगे हैं पिट रहे।
खोलते मुँह बेतरह हैं डर रहे।
मौत के मुँह में चले हैं जा रहे।
हैं मगर हम दूसरों पर मर रहे।
दौड़ उन की है बिराने देस तक।
घूम फिर जब हम रहे तब घर रहे।
हम छलाँगें मार हैं पाते नहीं।
वह छलाँगें हैं छगूनी भर रहे।
वह कहीं हो पर गले का हार है।
इस तरह वे जाति-रंग में हैं रँगे।
रंगतें इतनी हमारी हैं बुरी।
हैं सगे भी बन नहीं सकते सगे।
है पसीना जाति का गिरता जहाँ।
वे वहाँ अपना गिराते हैं लहू।
जाति - लहू चूस लेने के लिए।
कब नहीं हम जिन्द बनते हूबहू।
जाति-दुख से वे दुखी हैं हो रहे।
क्यों न वह हो दूर देसों में बसी।
देख कर भी देख हम पाते नहीं।
जा रही है जाति दलदल में धँसी।
बावलों जैसा बना उन को दिया।
दूर से आ जाति-दुख के नाम ने।
आँख में उतरा नहीं मेरे लहू।
जाति का होता लहू है सामने।
जाति को ऊँचा उठाने के लिए।
बाग अपनी कब न वे खींचे रहे।
नीच बन आँखें बहुत नीची किये।
हम गिराते जाति को नीचे रहे।
अठकपालीपन दिखा हैं वे रहे।
है अजब औंधी हमारी खोपड़ी।
वे महल अपने खड़े हैं कर रहे।
हम रहे हैं फूँक अपनी झोंपड़ी।
हों भले ही वे विदेसों में बसे।
प्यार में हैं जाति के पूरे सने।
बात अपनी बेकसी की क्या कहें।
देस में भी हम विदेसी हैं बने।
धाक अपनी बँधा हैं जग में रहे।
एक झंडे के तले वे हो खड़े।
फूट है घर में हमारे पड़ रही।
हैं लुढ़कते जा रहे घी के घड़े।
धर्म पर हो रहे निछावर हैं।
आज वे बोल बोल कर हुर्रे।
हम अधूरे बुरे धुरे पकड़े।
धर्म के हैं उड़ा रहे धुर्रे।
क्यों न हों बहु देस में फ़ैले हुए।
हैं मगर वे एक बंधन में बँधे।
साध रहते देस में हम से नहीं।
एकता के मंत्र साधे से सधे।
दूसरों की जड़ जमाने के लिए।
क्यों बहक कर आप अपनी जड़ खनें।
हम नहीं कहते कि लोहा लोग लें।
पर न चुम्बक के लिए लोहा बनें।