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− | {{KKGlobal}}
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− | {{KKRachna
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− | |रचनाकार=कुमार मुकुल
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− | |अनुवादक=
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− | |संग्रह=परिदृश्य के भीतर / कुमार मुकुल
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− | <poem>
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− | पहले बड़ी-बड़ी छितराती बूंदें गिरीं
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− | और सघन होती गयीं
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− | सामने मैदान में चरती गाय ने
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− | एक बार सिर ऊपर उठाया
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− | फिर चरने लगी
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− | और बछड़ा
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− | बूंदों की दिशा में सिर घुमा
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− | ढाही-सा मारने लगा
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− | और हारकर
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− | आख़िर
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− | गाय से सटकर खड़ा हो गया
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− | एक कुत्ता
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− | पूँछ थोड़ी सीधी किए
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− | करीब-करीब भागा जा रहा है
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− | जैसे बूंदें
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− | उसका जामा भिगो रही हों
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− | बूंदें गिर रही हैं एक तार
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− | पहले
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− | गाय की पीठ भीगकर
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− | चितकाबर हो जाती है
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− | फिर टघरकर पानी
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− | कई लकीरों में
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− | नीचे चूने लगता है
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− | और नक्शा बनने लगता है कई मुल्कों का
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− | लकीरें बढती जाती हैं
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− | और एकमएक होती जाती हैं
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− | नीचे गाय के पेट की ओर
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− | थोड़ी जगह सूखी है
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− | जैसे बकरे की खाल चिपकी हो
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− | अंत में करीब-करीब वह भी
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− | मिटने लगती है
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− | बूंदें एकतार गिर रही हैं
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− | अब कभी-कभी गाय को
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− | अपनी देह फटकारनी पड़ती है
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− | सिर को झिंझोड़ पानी झाड़ना होता है
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− | पर उसका चब्बर-चब्बर चरना जारी रहता है
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− | बूंदें गिर रही हैं एक तार
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− | दो घरेलू और एक पहाड़ी मैना
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− | पोल से सटे तार पर भीग रही हैं
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− | तार की निचली सतह पर
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− | बूंदें दौड़ लगा रही हैं
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− | एक बूंद बनती है
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− | और ढलान की ओर भागती है
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− | और वह दूसरी बूंद से टकरा जाती है
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− | फिर तीसरी बूंद नीचे आ जाती है
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− | बची बूंद दौड़ती है आगे की ओर
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− | यह चलता रहता है
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− | बूंदें गिर रही हैं एकतार
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− | नगर का नया बसता हिस्सा है यह
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− | भूभाग खाली हैं अधिकतर
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− | एक-आध मकान बन रहे हैं
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− | काफी पानी गिरने पर काम बंद हो जाएगा
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− | इसलिए शुरूआती बारिश में काम तेज़ है
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− | सिरों पर बोरियाँ डाले मज़दूर भाग रहे हैं
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− | छाता लिए ठीकेदार ढलाई ढकवा रहा है
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− | नीचे घास मिट्टी की सड़क पर
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− | मारूति में बैठा मालिक
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− | टुकुर-टुकुर ताक रहा है
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− | कभी शीशा जरा-सा खिसका कर
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− | कुछ चिल्लाता है वह ...
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− | तो मज़दूर धड़फड़ाने लगते हैं
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− | पर आख़िरकार बारिश
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− | उसका शीशा बंद करा देती है
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− | और मजूर हथेलियों से
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− | पसीना मिला पानी पोंछते
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− | भागते रहते हैं
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− | बारिश टिक गयी है
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− | सीमेंट बहने लगा है
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− | कम पड़ गया है पालीथीन
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− | ठीकेदार काम रूकवा देता है
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− | मजूर सुस्ताते हुए
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− | आकाश ताकने लगते हैं
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− | डर है कि बारिश
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− | दोपहर बाद का काम
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− | बंद ना करा दे
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− | बूंदें गिरनी जारी हैं
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− | थोड़ी दूर आगे छत पर
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− | अधबने मकान की
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− | बिना चौखट की खिड़की पर
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− | ननद-भौजाई आ बैठी हैं
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− | लगता है खाना बना चुकी हैं वो
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− | और नहाकर ऊपर आई हैं
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− | ननद ने गुलाबी मैक्सी पहन रखी है
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− | और भौजाई भी गुलाबी साड़ी में है
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− | एक-दूसरे पर दोहरी होती
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− | केशों में कंघी कर रही हैं वे
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− | अचानक वे उठकर
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− | सीढियों को भागती हैं
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− | किसी को भूख लग आई होगी
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− | बूंदें गिर रही हैं
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− | जैसे पूरे दृश्य को
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− | किसी ने तीरों से बींध डाला हो
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− | पूरा दृश्य फ्रीज है
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− | बस, चींटियाँ भाग रही हैं
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− | अपना ठिकाना बदल रही हैं वो पंक्ति में
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− | बीच में रानी चीटीं है
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− | पीछे से मोटी-सी
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− | छोटे पंखों वाली कुछ चींटियों ने
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− | अंडे उठा रखे हैं
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− | बीच में कभी कोई कीड़ा आ जाता है
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− | तो पंक्ति टूटती है
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− | और उसे भी साथ लेकर
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− | चल पड़ती हैं वे
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− | फिर
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− | वही पंक्ति
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− | इस कोने से उस कोने
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− | इस जहान से उस जहान।
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− | (रचनाकाल : 1998)
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