"सौन्दर्य लहरी / पृष्ठ - १ / आदि शंकराचार्य" के अवतरणों में अंतर
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स्त्वमेका नैवासि प्रकटितवरा भित्यभिनया || | स्त्वमेका नैवासि प्रकटितवरा भित्यभिनया || | ||
भयात्त्रातुं दातुं फलमपिच वाञ्छासमधिकं | | भयात्त्रातुं दातुं फलमपिच वाञ्छासमधिकं | | ||
− | शरण्ये लोकानां तवहि चरणावेव | + | शरण्ये लोकानां तवहि चरणावेव निपुणौ॥४॥ |
− | हरिस्त्वामाराध्य | + | हरिस्त्वामाराध्य प्रणतजनसौभाग्यजननीं। |
− | पुरानारी भूत्वा पुररिपुमपि | + | पुरानारी भूत्वा पुररिपुमपि क्षोभमनयत्॥ |
− | स्मरोऽपित्वां नत्वा रतिनयन लेह्येन | + | स्मरोऽपित्वां नत्वा रतिनयन लेह्येन वपुषा। |
− | मुनीनामप्यन्तः प्रभवति हि मोहाय | + | मुनीनामप्यन्तः प्रभवति हि मोहाय महताम्॥५॥ |
− | धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी | + | धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी पञ्चविशिखा। |
− | वसन्त सामन्तो मलयमरुदा | + | वसन्त सामन्तो मलयमरुदा योधनरथः॥ |
तथाप्येकः सर्वं हिमगिरिसुते कामपि कृपा- | तथाप्येकः सर्वं हिमगिरिसुते कामपि कृपा- | ||
− | मपाङ्गात्ते लब्ध्वा जगदिदमनङ्गो | + | मपाङ्गात्ते लब्ध्वा जगदिदमनङ्गो विजयते॥६|| |
क्वणत्काञ्चिदामाकरिकलभकुम्भस्तननता | क्वणत्काञ्चिदामाकरिकलभकुम्भस्तननता | ||
− | परिक्षीणा मध्ये | + | परिक्षीणा मध्ये परिणतशरच्चन्द्रवदना। |
धनुर्वाणांपाशंश्रृणिमपि दधाना करतलैः | धनुर्वाणांपाशंश्रृणिमपि दधाना करतलैः | ||
− | पुरस्तादास्तांनः पुरमथितु राहो | + | पुरस्तादास्तांनः पुरमथितु राहो पुरुषिका॥७॥ |
सुधासिन्धोर्मध्ये सुरविटपिवाटिपरिवृते | सुधासिन्धोर्मध्ये सुरविटपिवाटिपरिवृते | ||
मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिन्तामणिगृहे | मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिन्तामणिगृहे | ||
शिवाऽकारे मञ्चेपरमशिव पर्यङ्कनिलयां | शिवाऽकारे मञ्चेपरमशिव पर्यङ्कनिलयां | ||
− | भजन्ति त्वां धन्याः कतिजन | + | भजन्ति त्वां धन्याः कतिजन चिदानन्दलहरीम्॥८॥ |
− | महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे | + | महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं। |
− | स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदिमरुतमाकाश | + | स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदिमरुतमाकाश मुपरि॥ |
− | मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपिभित्वा | + | मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपिभित्वा कुलपथं। |
− | सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या | + | सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरते॥९॥ |
− | सुधाऽऽधारासारे | + | सुधाऽऽधारासारे श्चरणयुगलान्तर्विगलितैः। |
प्रपञ्चं सिञ्चन्ती पुनरपि रसाम्नायमहसः॥ | प्रपञ्चं सिञ्चन्ती पुनरपि रसाम्नायमहसः॥ | ||
− | अवाप्य स्वांभूमिं | + | अवाप्य स्वांभूमिं भुजगनिभमध्युष्टवलयं। |
स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुण्डे कुहरिणी॥१०॥ | स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुण्डे कुहरिणी॥१०॥ | ||
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प्रभिन्नाभिः शम्भोर्नवभिरपि मूल प्रकृतिभिः | प्रभिन्नाभिः शम्भोर्नवभिरपि मूल प्रकृतिभिः | ||
त्रयश्चत्वारिंशद् वसुदल कलाश्रत्रिवलय- | त्रयश्चत्वारिंशद् वसुदल कलाश्रत्रिवलय- | ||
− | + | त्रिरेखाभिःसार्धंतवशरणकोणाःपरिणताः॥११॥ | |
− | त्वदीयं सौन्दर्यं तुहिनगिरिकन्ये | + | त्वदीयं सौन्दर्यं तुहिनगिरिकन्ये तुलयितुं। |
− | कवीन्द्राः कल्पन्ते कथमपि | + | कवीन्द्राः कल्पन्ते कथमपि विरिञ्चिप्रभ्रृतयः॥ |
− | यदालोकौत्सुक्यादमरललना यान्ति | + | यदालोकौत्सुक्यादमरललना यान्ति मनसा। |
− | + | तपोभिर्दुष्प्रापामपिगिरिशसायुज्यपदवीम्॥१२॥ | |
− | नरं वर्षीयांसं नयनविरसं नर्मसु | + | नरं वर्षीयांसं नयनविरसं नर्मसु जडं। |
− | तवापाङ्गालोके पतितमनुधावन्ति | + | तवापाङ्गालोके पतितमनुधावन्ति शतशः॥ |
− | गलद्वेणीबन्धाः | + | गलद्वेणीबन्धाः कुचकलशविस्रस्तसिचया। |
− | हटात् त्रुट्यत्काञ्च्यो विगलितदुकूला | + | हटात् त्रुट्यत्काञ्च्यो विगलितदुकूला युवतयः॥१३॥ |
− | क्षितौ षट्पञ्चाशद्द ् | + | क्षितौ षट्पञ्चाशद्द ् विसमधिकपञ्चाशदुदके। |
− | + | हुताशेद्वाषष्टीश्चतुरधिकपञ्चाशदनिले॥ | |
− | दिविद्विः षट् त्रिंशन्मनसि च | + | दिविद्विः षट् त्रिंशन्मनसि च चतुःषष्टिरितिये। |
− | मयुखास्तेषामप्युपरि तव | + | मयुखास्तेषामप्युपरि तव पादाम्बुजयुगम्॥१४॥ |
− | शरज्ज्योत्स्नां शुभ्रां शशियुत जटाजूट | + | शरज्ज्योत्स्नां शुभ्रां शशियुत जटाजूट मकुटां। |
− | वर त्रासत्राण स्फटिक घुटिका पुस्तक | + | वर त्रासत्राण स्फटिक घुटिका पुस्तक कराम्॥ |
− | सकृन्न त्वां नत्वा कथमिव सतां | + | सकृन्न त्वां नत्वा कथमिव सतां संनिदधते। |
− | मधु क्षीर द्राक्षा मधुरिमधुरिणा | + | मधु क्षीर द्राक्षा मधुरिमधुरिणा भणितयः॥१५॥ |
कविन्द्राणां चेतः कमल वनबाला तपरुचिं | | कविन्द्राणां चेतः कमल वनबाला तपरुचिं | | ||
भजन्ते ये सन्तः कतिचिदरुणा मेव भवतीम् || | भजन्ते ये सन्तः कतिचिदरुणा मेव भवतीम् || | ||
− | विरिञ्चि प्रेयस्या स्तरुणतर श्रृङ्गार | + | विरिञ्चि प्रेयस्या स्तरुणतर श्रृङ्गार लहरी। |
गभीराभिर्वाग्भिर्बिदधति सतां रन्जन्ममी II१६II | गभीराभिर्वाग्भिर्बिदधति सतां रन्जन्ममी II१६II | ||
सवित्रीभिर्वाचां शशिमणि शिला भङ्गरुचिभि- | सवित्रीभिर्वाचां शशिमणि शिला भङ्गरुचिभि- | ||
− | र्वशिन्याद्याभिस्त्वां सह जननि | + | र्वशिन्याद्याभिस्त्वां सह जननि सञ्चिन्तयतियः॥ |
स कर्ता काव्यानां भवति महतां भङ्गिसुभगै- | स कर्ता काव्यानां भवति महतां भङ्गिसुभगै- | ||
− | र्वचोभि र्वाग्देवी वदन कमला मोद | + | र्वचोभि र्वाग्देवी वदन कमला मोद मधुरैः॥१७॥ |
तनुच्छाया भिस्ते तरुणतरणि श्रीधरणिभि- | तनुच्छाया भिस्ते तरुणतरणि श्रीधरणिभि- | ||
− | र्दिवं सर्वामुर्वी मरुणि मनिमग्न्नां स्मरति | + | र्दिवं सर्वामुर्वी मरुणि मनिमग्न्नां स्मरति यः॥ |
− | भवन्त्यस्य त्रस्य द्वनहरिणशालीन | + | भवन्त्यस्य त्रस्य द्वनहरिणशालीन नयनाः। |
− | + | सहोर्वश्यावश्याःकतिकतिनगीर्वाणगणिकाः॥१८॥ | |
− | मुखं बिन्दुं कृत्वा कुचयुगमधस्तस्य | + | मुखं बिन्दुं कृत्वा कुचयुगमधस्तस्य तदधो। |
− | हरार्धं ध्यायेद्यो हरमहिषि ते मन्मथ | + | हरार्धं ध्यायेद्यो हरमहिषि ते मन्मथ कलाम्॥ |
− | स सद्यः संक्षोभं नयति बनिता | + | स सद्यः संक्षोभं नयति बनिता इत्यतिलघु। |
− | त्रिलोकी मप्याशु भ्रमयति रवीन्दु | + | त्रिलोकी मप्याशु भ्रमयति रवीन्दु स्तनयुगाम्॥१९॥ |
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+ | किरन्तीमङ्गेभ्यः किरण निकुरुम्बामृतरसं। | ||
+ | हृदि त्वामाधत्ते हिमकरशिलामूर्तिमिवयः॥ | ||
+ | स सर्पाणाँ दर्पं शमयति शकुन्ताधिप इव। | ||
+ | ज्वरप्लुष्टांदृष्ट्या सुखयतिसुधाऽऽसारसिरया॥२०॥ | ||
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16:29, 14 अप्रैल 2015 का अवतरण
शिवःशक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुम् |
न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि ||
अतस्त्वामाराध्यां हरिहरविरिञ्चादिभिरपि |
प्रणन्तुं स्तोतुं वा, कथमकृतपुण्यः प्रभवति ||१||
तनियांसं पांसुं तव चरण-पंकेरुह-भवम् |
विरञ्चिः सञ्चिन्वन् विरचयति लोकानविकलम् ||
वहत्येनं शौरिः कथमपि सहस्त्रेण शिरसाम् |
हरः संक्षुभ्यैनं भजति भसितोद्धूलन विधिम् ||२||
अविद्यानामन्तस्तिमिरमिहिरद्वीपनगरी |
जडानां चैतन्य स्तवक मकरन्द श्रुति झरी ||
दरिद्राणां चिन्तामणिगुणनिका जन्मजलधौ |
निमग्नानां दंष्ट्रा मुररिपुवराहस्य भवती ||३||
त्वदन्यः पाणिभ्यामभयवरदो दैवतगण |
स्त्वमेका नैवासि प्रकटितवरा भित्यभिनया ||
भयात्त्रातुं दातुं फलमपिच वाञ्छासमधिकं |
शरण्ये लोकानां तवहि चरणावेव निपुणौ॥४॥
हरिस्त्वामाराध्य प्रणतजनसौभाग्यजननीं।
पुरानारी भूत्वा पुररिपुमपि क्षोभमनयत्॥
स्मरोऽपित्वां नत्वा रतिनयन लेह्येन वपुषा।
मुनीनामप्यन्तः प्रभवति हि मोहाय महताम्॥५॥
धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी पञ्चविशिखा।
वसन्त सामन्तो मलयमरुदा योधनरथः॥
तथाप्येकः सर्वं हिमगिरिसुते कामपि कृपा-
मपाङ्गात्ते लब्ध्वा जगदिदमनङ्गो विजयते॥६||
क्वणत्काञ्चिदामाकरिकलभकुम्भस्तननता
परिक्षीणा मध्ये परिणतशरच्चन्द्रवदना।
धनुर्वाणांपाशंश्रृणिमपि दधाना करतलैः
पुरस्तादास्तांनः पुरमथितु राहो पुरुषिका॥७॥
सुधासिन्धोर्मध्ये सुरविटपिवाटिपरिवृते
मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिन्तामणिगृहे
शिवाऽकारे मञ्चेपरमशिव पर्यङ्कनिलयां
भजन्ति त्वां धन्याः कतिजन चिदानन्दलहरीम्॥८॥
महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं।
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदिमरुतमाकाश मुपरि॥
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपिभित्वा कुलपथं।
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरते॥९॥
सुधाऽऽधारासारे श्चरणयुगलान्तर्विगलितैः।
प्रपञ्चं सिञ्चन्ती पुनरपि रसाम्नायमहसः॥
अवाप्य स्वांभूमिं भुजगनिभमध्युष्टवलयं।
स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुण्डे कुहरिणी॥१०॥
चतुर्भिः श्रीकण्ठैः शिवयुवतिभिः पञ्चभिरपि
प्रभिन्नाभिः शम्भोर्नवभिरपि मूल प्रकृतिभिः
त्रयश्चत्वारिंशद् वसुदल कलाश्रत्रिवलय-
त्रिरेखाभिःसार्धंतवशरणकोणाःपरिणताः॥११॥
त्वदीयं सौन्दर्यं तुहिनगिरिकन्ये तुलयितुं।
कवीन्द्राः कल्पन्ते कथमपि विरिञ्चिप्रभ्रृतयः॥
यदालोकौत्सुक्यादमरललना यान्ति मनसा।
तपोभिर्दुष्प्रापामपिगिरिशसायुज्यपदवीम्॥१२॥
नरं वर्षीयांसं नयनविरसं नर्मसु जडं।
तवापाङ्गालोके पतितमनुधावन्ति शतशः॥
गलद्वेणीबन्धाः कुचकलशविस्रस्तसिचया।
हटात् त्रुट्यत्काञ्च्यो विगलितदुकूला युवतयः॥१३॥
क्षितौ षट्पञ्चाशद्द ् विसमधिकपञ्चाशदुदके।
हुताशेद्वाषष्टीश्चतुरधिकपञ्चाशदनिले॥
दिविद्विः षट् त्रिंशन्मनसि च चतुःषष्टिरितिये।
मयुखास्तेषामप्युपरि तव पादाम्बुजयुगम्॥१४॥
शरज्ज्योत्स्नां शुभ्रां शशियुत जटाजूट मकुटां।
वर त्रासत्राण स्फटिक घुटिका पुस्तक कराम्॥
सकृन्न त्वां नत्वा कथमिव सतां संनिदधते।
मधु क्षीर द्राक्षा मधुरिमधुरिणा भणितयः॥१५॥
कविन्द्राणां चेतः कमल वनबाला तपरुचिं |
भजन्ते ये सन्तः कतिचिदरुणा मेव भवतीम् ||
विरिञ्चि प्रेयस्या स्तरुणतर श्रृङ्गार लहरी।
गभीराभिर्वाग्भिर्बिदधति सतां रन्जन्ममी II१६II
सवित्रीभिर्वाचां शशिमणि शिला भङ्गरुचिभि-
र्वशिन्याद्याभिस्त्वां सह जननि सञ्चिन्तयतियः॥
स कर्ता काव्यानां भवति महतां भङ्गिसुभगै-
र्वचोभि र्वाग्देवी वदन कमला मोद मधुरैः॥१७॥
तनुच्छाया भिस्ते तरुणतरणि श्रीधरणिभि-
र्दिवं सर्वामुर्वी मरुणि मनिमग्न्नां स्मरति यः॥
भवन्त्यस्य त्रस्य द्वनहरिणशालीन नयनाः।
सहोर्वश्यावश्याःकतिकतिनगीर्वाणगणिकाः॥१८॥
मुखं बिन्दुं कृत्वा कुचयुगमधस्तस्य तदधो।
हरार्धं ध्यायेद्यो हरमहिषि ते मन्मथ कलाम्॥
स सद्यः संक्षोभं नयति बनिता इत्यतिलघु।
त्रिलोकी मप्याशु भ्रमयति रवीन्दु स्तनयुगाम्॥१९॥
किरन्तीमङ्गेभ्यः किरण निकुरुम्बामृतरसं।
हृदि त्वामाधत्ते हिमकरशिलामूर्तिमिवयः॥
स सर्पाणाँ दर्पं शमयति शकुन्ताधिप इव।
ज्वरप्लुष्टांदृष्ट्या सुखयतिसुधाऽऽसारसिरया॥२०॥