भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"एक बूँद / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
छो (अभी और संपादन बाकी था)
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी<br>
 
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी<br>
 
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,<br>
 
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,<br>
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी ?<br><br>
+
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?<br><br>
  
देव मेरे भाग्य में क्या है बढ़ा,<br>
+
देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,<br>
 
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?<br>
 
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?<br>
 
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,<br>
 
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,<br>

19:05, 15 अगस्त 2006 का अवतरण

लेखक: अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?

देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।