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मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?<br> | मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?<br> | ||
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,<br> | या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,<br> |
19:05, 15 अगस्त 2006 का अवतरण
लेखक: अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध
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ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?
देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।
लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।