"नाता-रिश्ता / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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− | चिरन्तन छिने जाते हुए | + | तुम सतत |
− | क्षण का सुख हो— | + | चिरन्तन छिने जाते हुए |
− | (इसी में उस सुख की अलौकिकता है): | + | क्षण का सुख हो— |
− | भाषा की पकड़ में से फिसली जाती हुई | + | (इसी में उस सुख की अलौकिकता है): |
− | :::भावना का अर्थ— | + | भाषा की पकड़ में से फिसली जाती हुई |
− | (वही तो अर्थ सनातन है): | + | :::भावना का अर्थ— |
− | वह सोने की कली जो उस अंजलि-भर रेत में थी जो | + | (वही तो अर्थ सनातन है): |
− | ::::धो कर अलग करने में— | + | वह सोने की कली जो उस अंजलि-भर रेत में थी जो |
− | ::मुट्ठियों से फिसल कर नदी में बह गई— | + | ::::धो कर अलग करने में— |
− | (उसी अकाल, अकूल नदी में जिस में से फिर | + | ::मुट्ठियों से फिसल कर नदी में बह गई— |
− | :::::अंजलि भरेगी | + | (उसी अकाल, अकूल नदी में जिस में से फिर |
− | और फिर सोने की कनी फिसल कर बह जाएगी।) | + | :::::अंजलि भरेगी |
+ | और फिर सोने की कनी फिसल कर बह जाएगी।) | ||
− | तुम सदा से | + | तुम सदा से |
− | वह गान हो जिस की टेक-भर | + | वह गान हो जिस की टेक-भर |
− | गाने से रह गई। | + | गाने से रह गई। |
− | मेरी वह फूस की मड़िया जिस का छप्पर तो | + | मेरी वह फूस की मड़िया जिस का छप्पर तो |
− | ::हवा के झोंकों के लिए रह गया | + | ::हवा के झोंकों के लिए रह गया |
− | पर दीवारें सब बेमौसम की वर्षा में बह गईं... | + | पर दीवारें सब बेमौसम की वर्षा में बह गईं... |
− | यही सब हमारा नाता रिश्ता है—इसी में मैं हूँ | + | यही सब हमारा नाता रिश्ता है—इसी में मैं हूँ |
− | ::::और तुम हो: | + | ::::और तुम हो: |
− | और इतनी ही बात है जो बार-बार कही गई | + | और इतनी ही बात है जो बार-बार कही गई |
− | और हर बार कही जाने में ही कही जाने से रह गई। | + | और हर बार कही जाने में ही कही जाने से रह गई। |
− | ::२ | + | ::२ |
− | तो यों, इस लिए | + | तो यों, इस लिए |
− | यहीं अकेले में | + | यहीं अकेले में |
− | बिना शब्दों के | + | बिना शब्दों के |
− | मेरे इस हठी गीत को जागने दो, गूंजने दो | + | मेरे इस हठी गीत को जागने दो, गूंजने दो |
− | मौन में लय हो जाने दो: | + | मौन में लय हो जाने दो: |
− | यहीं | + | यहीं |
− | जहाँ कोई देखता-सुनता नहीं | + | जहाँ कोई देखता-सुनता नहीं |
− | केवल मरु का रेत-लदा झोंका | + | केवल मरु का रेत-लदा झोंका |
− | डँसता है और फिर एक किरकिरी | + | डँसता है और फिर एक किरकिरी |
− | हँसी हँसता बढ़ जाता है— | + | हँसी हँसता बढ़ जाता है— |
− | यहीं | + | यहीं |
− | जहाँ रवि तपता है | + | जहाँ रवि तपता है |
− | और अपनी ही तपन से जनी धूल-कनी की | + | और अपनी ही तपन से जनी धूल-कनी की |
− | यवनिका में झपता है— | + | यवनिका में झपता है— |
− | यहीं | + | यहीं |
− | जहाँ सब कुछ दीखता है, | + | जहाँ सब कुछ दीखता है, |
− | और सब रंग सोख लिए गए हैं | + | और सब रंग सोख लिए गए हैं |
− | इस लिए हर कोई सीखता है कि | + | इस लिए हर कोई सीखता है कि |
− | सब कुछ अन्धा है। | + | सब कुछ अन्धा है। |
− | जहाँ सब कुछ साँय-साँय गूंजता है | + | जहाँ सब कुछ साँय-साँय गूंजता है |
− | और निरे शोर में संयत स्वर धोखे से | + | और निरे शोर में संयत स्वर धोखे से |
− | :लड़खड़ा कर झड़ जाता है। | + | :लड़खड़ा कर झड़ जाता है। |
− | ::३ | + | ::३ |
− | यहीं, यहीं और अभी | + | यहीं, यहीं और अभी |
− | इस सधे सन्धि-क्षण में | + | इस सधे सन्धि-क्षण में |
− | इस नए जनमे, नए जागे, | + | इस नए जनमे, नए जागे, |
− | अपूर्व, अद्वितीय—अभागे | + | अपूर्व, अद्वितीय—अभागे |
− | मेरे पुण्यगीत को | + | मेरे पुण्यगीत को |
− | अपने अन्तःशून्य में ही तन्मय हो जाने दो— | + | अपने अन्तःशून्य में ही तन्मय हो जाने दो— |
− | यों अपने को पाने दो! | + | यों अपने को पाने दो! |
− | ::४ | + | ::४ |
− | वही, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो | + | वही, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो |
− | और मैंने कब, कहाँ तुम्हें पाया है? | + | और मैंने कब, कहाँ तुम्हें पाया है? |
− | हाँ—बातों के बीच की चुप्पियों में | + | हाँ—बातों के बीच की चुप्पियों में |
− | हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गई आहों में | + | हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गई आहों में |
− | भीड़ों में भटकी हुई अनाथ आँखों में | + | भीड़ों में भटकी हुई अनाथ आँखों में |
− | तीर्थों की पगडण्डियों में | + | तीर्थों की पगडण्डियों में |
− | बरसों पहले गुज़रे हुए यात्रियों की | + | बरसों पहले गुज़रे हुए यात्रियों की |
− | दाल-बाटी की बची-बुझी राखों में! | + | दाल-बाटी की बची-बुझी राखों में! |
− | ::५ | + | ::५ |
− | उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ— | + | उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ— |
− | उस मौन की भाषा मैं गाता हूँ: | + | उस मौन की भाषा मैं गाता हूँ: |
− | उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में | + | उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में |
− | :मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर | + | :मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर |
− | मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ— | + | मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ— |
− | यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ! | + | यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ! |
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21:35, 3 नवम्बर 2009 का अवतरण
तुम सतत
चिरन्तन छिने जाते हुए
क्षण का सुख हो—
(इसी में उस सुख की अलौकिकता है):
भाषा की पकड़ में से फिसली जाती हुई
भावना का अर्थ—
(वही तो अर्थ सनातन है):
वह सोने की कली जो उस अंजलि-भर रेत में थी जो
धो कर अलग करने में—
मुट्ठियों से फिसल कर नदी में बह गई—
(उसी अकाल, अकूल नदी में जिस में से फिर
अंजलि भरेगी
और फिर सोने की कनी फिसल कर बह जाएगी।)
तुम सदा से
वह गान हो जिस की टेक-भर
गाने से रह गई।
मेरी वह फूस की मड़िया जिस का छप्पर तो
हवा के झोंकों के लिए रह गया
पर दीवारें सब बेमौसम की वर्षा में बह गईं...
यही सब हमारा नाता रिश्ता है—इसी में मैं हूँ
और तुम हो:
और इतनी ही बात है जो बार-बार कही गई
और हर बार कही जाने में ही कही जाने से रह गई।
२
तो यों, इस लिए
यहीं अकेले में
बिना शब्दों के
मेरे इस हठी गीत को जागने दो, गूंजने दो
मौन में लय हो जाने दो:
यहीं
जहाँ कोई देखता-सुनता नहीं
केवल मरु का रेत-लदा झोंका
डँसता है और फिर एक किरकिरी
हँसी हँसता बढ़ जाता है—
यहीं
जहाँ रवि तपता है
और अपनी ही तपन से जनी धूल-कनी की
यवनिका में झपता है—
यहीं
जहाँ सब कुछ दीखता है,
और सब रंग सोख लिए गए हैं
इस लिए हर कोई सीखता है कि
सब कुछ अन्धा है।
जहाँ सब कुछ साँय-साँय गूंजता है
और निरे शोर में संयत स्वर धोखे से
लड़खड़ा कर झड़ जाता है।
३
यहीं, यहीं और अभी
इस सधे सन्धि-क्षण में
इस नए जनमे, नए जागे,
अपूर्व, अद्वितीय—अभागे
मेरे पुण्यगीत को
अपने अन्तःशून्य में ही तन्मय हो जाने दो—
यों अपने को पाने दो!
४
वही, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो
और मैंने कब, कहाँ तुम्हें पाया है?
हाँ—बातों के बीच की चुप्पियों में
हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गई आहों में
भीड़ों में भटकी हुई अनाथ आँखों में
तीर्थों की पगडण्डियों में
बरसों पहले गुज़रे हुए यात्रियों की
दाल-बाटी की बची-बुझी राखों में!
५
उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ—
उस मौन की भाषा मैं गाता हूँ:
उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में
मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर
मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ—
यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ!