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"बेटी के घर से लौटना / चन्द्रकान्त देवताले" के अवतरणों में अंतर
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− | + | पिता के वजूद को | |
− | + | जैसे आसमान में चाटती | |
− | + | कोई सूखी खुरदरी जुबान | |
− | एक दिन और | + | बाहर हँसते हुए कहते कितने दिन तो हुए |
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− | + | बादल बेटी के कहे के घुमड़ते | |
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− | + | सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते | |
− | + | दुनिया में सबसे कठिन है शायद | |
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− | सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते | + | |
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बेटी के घर लौटना। | बेटी के घर लौटना। | ||
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11:35, 22 सितम्बर 2013 के समय का अवतरण
बहुत जरूरी है पहुँचना
सामान बाँधते बमुश्किल कहते पिता
बेटी जिद करती
एक दिन और रुक जाओ न पापा
एक दिन
पिता के वजूद को
जैसे आसमान में चाटती
कोई सूखी खुरदरी जुबान
बाहर हँसते हुए कहते कितने दिन तो हुए
सोचते कब तक चलेगा यह सब कुछ
सदियों से बेटियाँ रोकती होंगी पिता को
एक दिन और
और एक दिन डूब जाता होगा पिता का जहाज
वापस लौटते में
बादल बेटी के कहे के घुमड़ते
होती बारीश आँखो से टकराती नमी
भीतर कंठ रूँध जाता थके कबूतर का
सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद
बेटी के घर लौटना।