भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"घनाक्षरी / मिलन मलरिहा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मिलन मलरिहा |संग्रह= }} {{KKCatChhattisgarhiRachna}} <p...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=
 
|संग्रह=
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatGhanakshari}}
 
{{KKCatChhattisgarhiRachna}}
 
{{KKCatChhattisgarhiRachna}}
 
<poem>
 
<poem>
::::(1)
+
::::::(1)
  
 
नष्ट झिनकरा संगी, रुखराई वन बन
 
नष्ट झिनकरा संगी, रुखराई वन बन
पंक्ति 17: पंक्ति 18:
 
::::आज सबो पढ़लिख, होगे हे गवार रे!
 
::::आज सबो पढ़लिख, होगे हे गवार रे!
  
::::(2)
+
::::::(2)
  
 
पर घर नास कर, छाबे जब घर संगी
 
पर घर नास कर, छाबे जब घर संगी

15:58, 18 जनवरी 2017 का अवतरण

साँचा:KKCatGhanakshari

(1)

नष्ट झिनकरा संगी, रुखराई वन बन
जीवजन्तु कलपत, सुनले पुकार रे।
प्राण इही जान इही, सुद्ध हवा देत इही
झिन काट रुखराई, अउ आमाडार रे।
कल-पत हे चिराई, घर द्वार टूटे सबो
संसो-छाए लईका के, आंसु के बयार रे।
जीव के अधार इही, नानपन पढ़े सबो
आज सबो पढ़लिख, होगे हे गवार रे!

(2)

पर घर नास कर, छाबे जब घर संगी
काहापाबे सुखसांती, बिछा जही प्यार रे।
अपन बनौकी बर, दुख तैहा ओला देहे
भोग-लोभ करकर , बिगाड़े संसार रे।
सबोके महत्व हे जी, खाद्य श्रृंखला जाल म
छोटे नोहै कहुं जीव, करले बिचार रे।
नदि नाला जंगल ले, उपजे गांव गांव ह
रुखराई जीवजन्तु, आज तै सवार रे।