भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कहीं पे धूप / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
छो |
||
पंक्ति 17: | पंक्ति 17: | ||
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।<br><br> | तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।<br><br> | ||
− | लहू लुहान नज़रों का | + | लहू लुहान नज़रों का ज़िक्र आया तो<br> |
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए।<br><br> | शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए।<br><br> | ||
ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है<br> | ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है<br> | ||
यहां बबूल के साये में आके बैठ गए। <br><br> | यहां बबूल के साये में आके बैठ गए। <br><br> |
19:36, 25 अगस्त 2006 का अवतरण
लेखक: दुष्यंत कुमार
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए।
जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए।
खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए।
दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।
लहू लुहान नज़रों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए।
ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
यहां बबूल के साये में आके बैठ गए।