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"कहीं पे धूप / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर

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कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए<br>
 
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए<br>

17:32, 25 जुलाई 2008 का अवतरण

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए।

जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए।

खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए।

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।

लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए।

ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
यहां बबूल के साये में आके बैठ गए।