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"देगची में प्रेम / अनुराधा सिंह" के अवतरणों में अंतर

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अब और लड़ा नहीं जाता मुझसे तुमसे
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बगल वाले कमरे में
अब और गुरेज नहीं मुझे तुम्हारी बेसिर पैर की बातों से
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उसके अब्बा घर की सबसे बड़ी देग में
मैंने कल ही जाना है कि हमेशा नहीं रहोगी मेरे साथ
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परमाणु बम बना रहे थे
सबकी माँएं मर जातीं हैं एक दिन
+
फ्रिज में एक नामालूम सा लाल रंग का माँस रखा था
 
+
बहुत आगे जाकर पूरब में कहीं
बेतरतीब हो गयी हैं तुम्हारी मांसपेशियाँ
+
तख़्ता पलट होने वाला था
और याददाश्त
+
मैं प्रेम को सिरे से खारिज करता हुआ
शायद हड्डियाँ घिसने से कुछ और छोटी हो गयी हो
+
‘प्रेम’ की आखिरी किश्त भी  
बाल भी कहीं हल्के कहीं थोड़े कम हल्के हैं
+
भुना लेना चाहता था 
साँस लेती हो
+
और यही आखिरी मुद्दा पिछले कई सौ सालों से  
तो दूर बैठी भी सुन लेती हूँ घरघराहट
+
उसे परेशान किए हुए था
फिर भी जब जाओगी
+
आज तो
तब मैं
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हमारे मजहब और धर्म की निरी अदला बदली
रेशा रेशा बिखर जाऊँगी
+
भी उसकी हताशा कम नहीं कर पाएगी 
तुम्हारे बिन
+
उसके और मेरे लोग
 
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घरों, बाज़ारों, सड़कों, स्कूलों को
रात भर मैं तुम्हारे छोटे छोटे भरे होंठों
+
परमाणु रियेक्टर बनाए हुए हैं
के गीले चुंबन चिपकाती रही
+
फ्रिज में पता नहीं क्या क्या रखा है  
अपनी हथेलियों से माथे और गालों से उतारकर 
+
और पूरब में लोग कितना ऊपर चढ़ने के लिए
जो पोंछ लिए थे मैंने
+
यहाँ कितने गहरे गिर रहे हैं
झुँझला कर एक दिन
+
इन सबसे ज़्यादा बड़ा मसला
मुझे हमेशा खला कि
+
मेरा उसके प्रेम को हल्के में लेना था
तुम और माँओं जैसी नहीं थीं
+
और वह सिरे से ‘न’ कहना सीख रही थी।
साधारण और शांत
+
तो क्यों तुम माँ ही निकलीं
+
सब माँओं सी 
+
 
+
जानती थी कि
+
माँ का मरना बहुत बुरा होता है  
+
शायद दुनिया में सबसे बुरा
+
नहीं जानती थी
+
कि यह अपनी देह से बिछड़ना था
+
मैं कितना अधिक जानती हूँ
+
इस दुनिया को तुम्हारे बनिस्बत
+
तुम कितना कम जानती हो इन दिनों
+
रास्ते नहीं मालूम ज़्यादा कहीं के
+
कितना डरती हो हर बात से आज कल
+
मरने से भी
+
फिर भी दूसरी दुनिया की देहरी पर तुम्हें
+
अकेला भेज दूँगी मैं
+
बिलकुल अकेला
+
रुग्ण दुर्बल और भ्रांत। 
+
 
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15:09, 16 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

बगल वाले कमरे में
उसके अब्बा घर की सबसे बड़ी देग में
परमाणु बम बना रहे थे
फ्रिज में एक नामालूम सा लाल रंग का माँस रखा था
बहुत आगे जाकर पूरब में कहीं
तख़्ता पलट होने वाला था
मैं प्रेम को सिरे से खारिज करता हुआ
‘प्रेम’ की आखिरी किश्त भी
भुना लेना चाहता था
और यही आखिरी मुद्दा पिछले कई सौ सालों से
उसे परेशान किए हुए था
आज तो
हमारे मजहब और धर्म की निरी अदला बदली
भी उसकी हताशा कम नहीं कर पाएगी
उसके और मेरे लोग
घरों, बाज़ारों, सड़कों, स्कूलों को
परमाणु रियेक्टर बनाए हुए हैं
फ्रिज में पता नहीं क्या क्या रखा है
और पूरब में लोग कितना ऊपर चढ़ने के लिए
यहाँ कितने गहरे गिर रहे हैं
इन सबसे ज़्यादा बड़ा मसला
मेरा उसके प्रेम को हल्के में लेना था
और वह सिरे से ‘न’ कहना सीख रही थी।