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"मुक्तक / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर
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वक्त कितना भी हो मुश्किल ,खुद को बदलने नहीं देते॥ | वक्त कितना भी हो मुश्किल ,खुद को बदलने नहीं देते॥ | ||
डराएँगे क्या अँधेरे अपनी बुरी निगाहों से हमें । | डराएँगे क्या अँधेरे अपनी बुरी निगाहों से हमें । | ||
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'''बर्फीली कंच रातों में, जब लिहाफों में मचलते हो । | '''बर्फीली कंच रातों में, जब लिहाफों में मचलते हो । |
17:05, 29 अप्रैल 2018 का अवतरण
1
रेत को मुट्ठी में भर करके हम फिसलने नहीं देते ।
वक्त कितना भी हो मुश्किल ,खुद को बदलने नहीं देते॥
डराएँगे क्या अँधेरे अपनी बुरी निगाहों से हमें ।
फ़ख्र तारों पर है जो उजालों को ढलने नहीं देते ॥
2
बर्फीली कंच रातों में, जब लिहाफों में मचलते हो ।
चाय की मीठी चुस्कियाँ लेते हुए ज़हर उगलते हो ।
जब सिन्दूर सरहद पर खड़ा होता है अडिग पर्वत-सा
तब तुम गद्दारों के लिए कैंडिल मार्च पर निकलते हो ॥
3
सिसकती सर्द रातों का मेरा सिंगार लौटा दो।
बूढ़े माँ-पिताजी की वो करुण मनुहार लौटा दो ॥
मनुज बनकर दानवों की ओ वकालत करने वालों !
मेरे भरतू का बचपन, पिता का दुलार लौटा दो॥