"कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 5" के अवतरणों में अंतर
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− | मैं भी हूँ सोचता जगत से | + | ::मैं भी हूँ सोचता जगत से |
− | कैसे मिटे जिघान्सा, | + | ::कैसे मिटे जिघान्सा, |
− | किस प्रकार धरती पर फैले | + | ::किस प्रकार धरती पर फैले |
− | करुणा, प्रेम, अहिंसा. | + | ::करुणा, प्रेम, अहिंसा. |
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− | धरती हो साम्राज्य स्नेह का, | + | ::धरती हो साम्राज्य स्नेह का, |
− | जीवन स्निग्ध, सरल हो. | + | ::जीवन स्निग्ध, सरल हो. |
− | मनुज प्रकृति से विदा सदा को | + | ::मनुज प्रकृति से विदा सदा को |
− | दाहक द्वेष गरल हो. | + | ::दाहक द्वेष गरल हो. |
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− | किंतु, हाय, आधे पथ तक ही, | + | ::किंतु, हाय, आधे पथ तक ही, |
− | पहुँच सका यह जग है, | + | ::पहुँच सका यह जग है, |
− | अभी शांति का स्वप्न दूर | + | ::अभी शांति का स्वप्न दूर |
− | नभ में करता जग-मग है. | + | ::नभ में करता जग-मग है. |
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− | किंतु, द्वेष के शिला-दुर्ग से | + | ::किंतु, द्वेष के शिला-दुर्ग से |
− | बार-बार टकरा कर, | + | ::बार-बार टकरा कर, |
− | रुद्ध मनुज के मनोद्देश के | + | ::रुद्ध मनुज के मनोद्देश के |
− | लौह-द्वार को पा कर. | + | ::लौह-द्वार को पा कर. |
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− | क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन | + | ::क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन |
− | अगणित अभी यहाँ हैं, | + | ::अगणित अभी यहाँ हैं, |
− | बढ़े शांति की लता, कहो | + | ::बढ़े शांति की लता, कहो |
− | वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं? | + | ::वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं? |
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− | शांति नाम उस रुचित सरणी का, | + | ::शांति नाम उस रुचित सरणी का, |
− | जिसे प्रेम पहचाने, | + | ::जिसे प्रेम पहचाने, |
− | खड्ग-भीत तन ही न, | + | ::खड्ग-भीत तन ही न, |
− | मनुज का मन भी जिसको माने | + | ::मनुज का मन भी जिसको माने |
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− | घृणा-कलह-विफोट हेतु का | + | ::घृणा-कलह-विफोट हेतु का |
− | करके सफल निवारण, | + | ::करके सफल निवारण, |
− | मनुज-प्रकृति ही करती | + | ::मनुज-प्रकृति ही करती |
− | शीतल रूप शांति का धारण. | + | ::शीतल रूप शांति का धारण. |
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− | शांति, सुशीतल शांति, | + | ::शांति, सुशीतल शांति, |
− | कहाँ वह समता देने वाली? | + | ::कहाँ वह समता देने वाली? |
− | देखो आज विषमता की ही | + | ::देखो आज विषमता की ही |
− | वह करती रखवाली. | + | ::वह करती रखवाली. |
पंक्ति 166: | पंक्ति 169: | ||
− | वह रखती परिपूर्ण नृपों से | + | ::वह रखती परिपूर्ण नृपों से |
− | जरासंध की कारा. | + | ::जरासंध की कारा. |
− | शोणित कभी, कभी पीती है, | + | ::शोणित कभी, कभी पीती है, |
− | तप्त अश्रु की धारा. | + | ::तप्त अश्रु की धारा. |
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− | थी परस्व-ग्रासिनी, भुजन्गिनि, | + | ::थी परस्व-ग्रासिनी, भुजन्गिनि, |
− | वह जो जली समर में. | + | ::वह जो जली समर में. |
− | असहनशील शौर्य था, जो बल | + | ::असहनशील शौर्य था, जो बल |
− | उठा पार्थ के | + | ::उठा पार्थ के शर में. |
पंक्ति 202: | पंक्ति 205: | ||
− | पापी कौन? मनुज से उसका | + | ::पापी कौन? मनुज से उसका |
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+ | ::न्याय चुराने वाला? | ||
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+ | ::या कि न्याय खोजते विघ्न | ||
− | + | ::का सीस उड़ाने वाला? | |
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19:50, 21 अगस्त 2008 का अवतरण
भूल रहे हो धर्मराज तुम
अभी हिन्स्त्र भूतल है.
खड़ा चतुर्दिक अहंकार है,
खड़ा चतुर्दिक छल है.
- मैं भी हूँ सोचता जगत से
- कैसे मिटे जिघान्सा,
- किस प्रकार धरती पर फैले
- करुणा, प्रेम, अहिंसा.
जिए मनुज किस भाँति
परस्पर होकर भाई भाई,
कैसे रुके प्रदाह क्रोध का?
कैसे रुके लड़ाई?
- धरती हो साम्राज्य स्नेह का,
- जीवन स्निग्ध, सरल हो.
- मनुज प्रकृति से विदा सदा को
- दाहक द्वेष गरल हो.
बहे प्रेम की धार, मनुज को
वह अनवरत भिगोए,
एक दूसरे के उर में,
नर बीज प्रेम के बोए.
- किंतु, हाय, आधे पथ तक ही,
- पहुँच सका यह जग है,
- अभी शांति का स्वप्न दूर
- नभ में करता जग-मग है.
भूले भटके ही धरती पर
वह आदर्श उतरता.
किसी युधिष्ठिर के प्राणों में
ही स्वरूप है धरता.
- किंतु, द्वेष के शिला-दुर्ग से
- बार-बार टकरा कर,
- रुद्ध मनुज के मनोद्देश के
- लौह-द्वार को पा कर.
घृणा, कलह, विद्वेष विविध
तापों से आकुल हो कर,
हो जाता उड्डीन, एक दो
का ही हृदय भिगो कर.
- क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन
- अगणित अभी यहाँ हैं,
- बढ़े शांति की लता, कहो
- वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं?
शांति-बीन बजती है, तब तक
नहीं सुनिश्चित सुर में.
सुर की शुद्ध प्रतिध्वनि, जब तक
उठे नहीं उर-उर में.
- शांति नाम उस रुचित सरणी का,
- जिसे प्रेम पहचाने,
- खड्ग-भीत तन ही न,
- मनुज का मन भी जिसको माने
शिवा-शांति की मूर्ति नहीं
बनती कुलाल के गृह में.
सदा जन्म लेती वह नर के
मनःप्रान्त निस्प्रह में.
- घृणा-कलह-विफोट हेतु का
- करके सफल निवारण,
- मनुज-प्रकृति ही करती
- शीतल रूप शांति का धारण.
जब होती अवतीर्ण मूर्ति यह
भय न शेष रह जाता.
चिंता-तिमिर ग्रस्त फिर कोई
नहीं देश रह जाता.
- शांति, सुशीतल शांति,
- कहाँ वह समता देने वाली?
- देखो आज विषमता की ही
- वह करती रखवाली.
आनन सरल, वचन मधुमय है,
तन पर शुभ्र वसन है.
बचो युधिष्ठिर, उस नागिन का
विष से भरा दशन है.
- वह रखती परिपूर्ण नृपों से
- जरासंध की कारा.
- शोणित कभी, कभी पीती है,
- तप्त अश्रु की धारा.
कुरुक्षेत्र में जली चिता
जिसकी वह शांति नहीं थी.
अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली
वह दुश्क्रान्ति नहीं थी.
- थी परस्व-ग्रासिनी, भुजन्गिनि,
- वह जो जली समर में.
- असहनशील शौर्य था, जो बल
- उठा पार्थ के शर में.
हुआ नहीं स्वीकार शांति को
जीना जब कुछ देकर.
टूटा मनुज काल-सा उस पर
प्राण हाथ में लेकर
- पापी कौन? मनुज से उसका
- न्याय चुराने वाला?
- या कि न्याय खोजते विघ्न
- का सीस उड़ाने वाला?