भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"ग़म के सांचे में ढली हो जैसे / सुरेश चन्द्र शौक़" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश चन्द्र शौक़ }} Category:ग़ज़ल ग़म के सांचे में ढली हो ...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=सुरेश चन्द्र शौक़ | |रचनाकार=सुरेश चन्द्र शौक़ | ||
+ | |संग्रह = आँच / सुरेश चन्द्र शौक़ | ||
}} | }} | ||
[[Category:ग़ज़ल]] | [[Category:ग़ज़ल]] |
14:47, 10 अगस्त 2008 के समय का अवतरण
ग़म के सांचे में ढली हो जैसे
ज़ीस्त काँटों में पली हो जैसे
दर—ब—दर ढूँढता फिरता हूँ तुझे
हर गली तेरी गली हो जैसे
हम:तन गोश है सारी महफ़िल
आपकी बात चली हो जैसे
यूँ तेरी याद है दिल में रौशन
इक अमर जोत जली हो जैसे
तेरी सूरत से झलकता है ख़ुलूस
तेरी सीरत भी भली हो जैसे
आह ! यह तुझसे बिछड़ने की घड़ी
नब्ज़—दिल डूब चली हो जैसे
‘शौक़’! महरूमी—ए—दिल क्या कहिये
हर ख़ुशी हम से टली हो जैसे.-
ज़ीस्त=ज़िंदगी; हम:तन गोश होना =सुनने के लिए कान बन जाना; ख़ुलूस=निष्कपटता:
सीरत=स्वभाव; महरूमी-ए-दिल= दिल का वंचित हो जाना