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"देश के आकाओं का डिगने लगा ईमान है / डी. एम. मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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सिर्फ़ हम तुम ही नहीं ख़तरे में हिंदुस्तान है
  
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तू मुसलमाँ और मैं हिंदू यही बस हो रहा
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अब कहाँ कोई बचा इस देश में इन्सान है
  
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छोड़िये ज़िद और सुनिये ग़ौर से बातें मेरी
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बँाटने पर हो अड़े किसका मगर नुक़सान है
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ये  गुलिस्ताँ है यहाँ बातें अमन की कीजिए
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उस  तरफ़ मत जाइये  बैठा वहाँ शैतान है
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वक़्त पर रोटी मिले औ काम उनके हाथ को
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इससे ज़्यादा क्या ग़रीबों का कोई अरमान है
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ये बुजुर्गों की बतायी बात इस पर हो अमल
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जोड़ना सबसे कठिन है , तोड़ना आसान है
 
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14:24, 16 नवम्बर 2020 के समय का अवतरण

देश के आकाओं का डिगने लगा ईमान है
सिर्फ़ हम तुम ही नहीं ख़तरे में हिंदुस्तान है

तू मुसलमाँ और मैं हिंदू यही बस हो रहा
अब कहाँ कोई बचा इस देश में इन्सान है

छोड़िये ज़िद और सुनिये ग़ौर से बातें मेरी
बँाटने पर हो अड़े किसका मगर नुक़सान है

ये गुलिस्ताँ है यहाँ बातें अमन की कीजिए
उस तरफ़ मत जाइये बैठा वहाँ शैतान है

वक़्त पर रोटी मिले औ काम उनके हाथ को
इससे ज़्यादा क्या ग़रीबों का कोई अरमान है

ये बुजुर्गों की बतायी बात इस पर हो अमल
जोड़ना सबसे कठिन है , तोड़ना आसान है