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"शहर / अमृता प्रीतम" के अवतरणों में अंतर
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मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है | मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है | ||
− | सड़कें - बेतुकी दलीलों सी… | + | सड़कें - बेतुकी दलीलों-सी… |
− | और | + | और गलियाँ इस तरह |
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता | जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता | ||
कोई उधर | कोई उधर | ||
− | हर मकान एक मुट्ठी सा भिंचा हुआ | + | हर मकान एक मुट्ठी-सा भिंचा हुआ |
दीवारें-किचकिचाती सी | दीवारें-किचकिचाती सी | ||
− | और | + | और नालियाँ, ज्यों मुँह से झाग बहता है |
यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी | यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी | ||
जो उसे देख कर यह और गरमाती | जो उसे देख कर यह और गरमाती | ||
− | और हर द्वार के | + | और हर द्वार के मुँह से |
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये | फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये | ||
गालियों की तरह निकलते | गालियों की तरह निकलते | ||
− | और | + | और घंटियाँ-हार्न एक दूसरे पर झपटते |
जो भी बच्चा इस शहर में जनमता | जो भी बच्चा इस शहर में जनमता | ||
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बहस से निकलता, बहस में मिलता… | बहस से निकलता, बहस में मिलता… | ||
− | शंख घंटों के | + | शंख घंटों के साँस सूखते |
रात आती, फिर टपकती और चली जाती | रात आती, फिर टपकती और चली जाती | ||
− | पर नींद में भी बहस | + | पर नींद में भी बहस ख़तम न होती |
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है…. | मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है…. | ||
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18:40, 10 अक्टूबर 2008 का अवतरण
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मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों-सी…
और गलियाँ इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर
हर मकान एक मुट्ठी-सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियाँ, ज्यों मुँह से झाग बहता है
यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मुँह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियाँ-हार्न एक दूसरे पर झपटते
जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…
शंख घंटों के साँस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती
पर नींद में भी बहस ख़तम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….