भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"लानत रख लो जन गण मन की / अनामिका सिंह 'अना'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनामिका सिंह 'अना' |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 32: पंक्ति 32:
 
   
 
   
 
आत्ममुग्धता की मूरत हो  
 
आत्ममुग्धता की मूरत हो  
  बैठै साँस ठगाकर तुम ।
+
  बैठै सांस ठगाकर तुम ।
 
</poem>
 
</poem>

19:20, 20 मई 2021 के समय का अवतरण

लानत रख लो जन गण मन की
राजा निकले पाथर तुम ।

साँसें पड़ीं शान्त जितनी भी
उन सबके हो हत्यारे,
दृष्य भयावह टर सकते थे
लेकिन तुमने कब टारे ।

संसाधन की डोर डाढ़ में
बैठे रहे दबाकर तुम ।

बेशर्मी भी शर्मसार है
इतने हुए अमानव हो,
चोला ओढ़े हो मानुष का
लेकिन घातक दानव हो ।
  
अफ़रोगे कब बोलो आख़िर
कितने मुण्ड चबाकर तुम ।

हाहाकार मचा हर घर में
कब रेंगी जूँ कानों पर,
मला अन्धेरा तुमने सबकी
सांसों संग विहानों पर ।
 
आत्ममुग्धता की मूरत हो
 बैठै सांस ठगाकर तुम ।