भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आख़िर में / अजय कुमार" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
 +
पहाड़ों से 
 +
एक- एक मोड़
 +
कोई बस 
 +
जैसे नीचे उतरती  है 
 +
यूँ जिन्दगी मेरी
 +
इन आखिरी सालों से
 +
गुज़रती है 
  
 +
कभी मेरे घुटनों का
 +
तेज  दर्द 
 +
कभी  मेरे
 +
दोस्त की बीमारी 
 +
जैसे जिन्दगी की रेल
 +
रोज तंग सुरंगों से
 +
निकलती है 
 +
 +
सिर्फ किताबों का
 +
रहा है 
 +
अब मेरी
 +
तनहाई को सहारा
 +
मगर आँखों की बिनाई
 +
रोज एक- एक पेंच
 +
उतरती है
 +
 +
मैं रोज देखता हूँ 
 +
दिन को चढ़ते-उतरते
 +
पर मेरी जिंदगी की शाम
 +
जैसे अब एक रात को
 +
तकती है
 +
 +
और सबसे
 +
जियादा है मुझसे
 +
इस दिल की दुश्मनी 
 +
इसकी धड़कनें
 +
ख्वाहिश की चिकनी जमीं पर
 +
अब भी
 +
फिसलती हैं.......
 
</poem>
 
</poem>

02:55, 17 नवम्बर 2022 के समय का अवतरण

पहाड़ों से
एक- एक मोड़
कोई बस
जैसे नीचे उतरती है
यूँ जिन्दगी मेरी
इन आखिरी सालों से
गुज़रती है

कभी मेरे घुटनों का
तेज दर्द
कभी मेरे
दोस्त की बीमारी
जैसे जिन्दगी की रेल
रोज तंग सुरंगों से
निकलती है

सिर्फ किताबों का
रहा है
अब मेरी
तनहाई को सहारा
मगर आँखों की बिनाई
रोज एक- एक पेंच
उतरती है

मैं रोज देखता हूँ
दिन को चढ़ते-उतरते
पर मेरी जिंदगी की शाम
जैसे अब एक रात को
तकती है

और सबसे
जियादा है मुझसे
इस दिल की दुश्मनी
इसकी धड़कनें
ख्वाहिश की चिकनी जमीं पर
अब भी
फिसलती हैं.......