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"दृगगोचर कब होंगे प्रियतम! अब अलस सिहरती काया है / प्रेम नारायण 'पंकिल'" के अवतरणों में अंतर

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आ रहा स्मरण प्रियतम! कहते थे ”सुमुखि! स्वर्ग का नन्दन वन।
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दृगगोचर कब होंगे प्रियतम! अब अलस सिहरती काया है।
इस वृन्दावन से तुल न कभीं सकता इसका चिन्मय कण-कण।
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आनन्दधाम से चिर सुन्दर! तव प्रणय-निमंत्रण आया है।
अगणित उडु नीलाम्बर नूतन घन सोम-रश्मि-रंजिता निशा।
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कोकिल बसंत की चिर सहचरि कहती प्राणेश-निमंत्रण है।
दिनमान कमलिनी-कुल-वल्लभ यह धेनु धूलि यह अरूण उषा।
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‘पी कहाँ’ पपीहा की वाणी सद्यः छू गयी विरह-व्रण है।
यह कोकिल-रव-मुखरित वनस्थली यह जननी-कृत शिशु-चुम्बन।
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”आमंत्रण है” मुकुलित रसाल की कहती सुरभित छाया है।
यह प्रेयसि-प्रियतम प्रणय-कलह यह आलिंगन यह अभिनन्दन।“
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कल-कल छल-छल सरि इंगित में प्रिय! तुमने मुझे बुलाया है।
हे वृन्दावनचारी! विकला बावरिया बरसाने वाली ।
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फिर रही प्राण! बेसुध विकला बावरिया बरसाने वाली ।  
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥83॥ </poem>
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क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली॥86॥
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08:30, 1 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण

दृगगोचर कब होंगे प्रियतम! अब अलस सिहरती काया है।
आनन्दधाम से चिर सुन्दर! तव प्रणय-निमंत्रण आया है।
कोकिल बसंत की चिर सहचरि कहती प्राणेश-निमंत्रण है।
‘पी कहाँ’ पपीहा की वाणी सद्यः छू गयी विरह-व्रण है।
”आमंत्रण है” मुकुलित रसाल की कहती सुरभित छाया है।
कल-कल छल-छल सरि इंगित में प्रिय! तुमने मुझे बुलाया है।
फिर रही प्राण! बेसुध विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली॥86॥