भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"शक्ति और क्षमा / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(some small fixes to words)
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=
 
|संग्रह=
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
{{KKPrasiddhRachna}}
 +
<poem>
 +
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
 +
सबका लिया सहारा
 +
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
 +
कहो, कहाँ कब हारा ?
  
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल<br>
+
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
सबका लिया सहारा<br>
+
तुम हुये विनत जितना ही
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे<br>
+
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कहो, कहाँ कब हारा ?<br><br>
+
कायर समझा उतना ही।
  
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष<br>
+
अत्याचार सहन करने का
तुम हुये विनत जितना ही<br>
+
कुफल यही होता है
दुष्ट कौरवों ने तुमको<br>
+
पौरुष का आतंक मनुज
कायर समझा उतना ही।<br><br>
+
कोमल होकर खोता है।
  
अत्याचार सहन करने का<br>
+
क्षमा शोभती उस भुजंग को
कुफल यही होता है<br>
+
जिसके पास गरल हो
पौरुष का आतंक मनुज<br>
+
उसको क्या जो दंतहीन
कोमल होकर खोता है।<br><br>
+
विषरहित, विनीत, सरल हो ।
  
क्षमा शोभती उस भुजंग को<br>
+
तीन दिवस तक पंथ मांगते
जिसके पास गरल हो<br>
+
रघुपति सिन्धु किनारे,
उसको क्या जो दंतहीन<br>
+
बैठे पढ़ते रहे छन्द
विषरहित, विनीत, सरल हो <br><br>
+
अनुनय के प्यारे-प्यारे
  
तीन दिवस तक पंथ मांगते<br>
+
उत्तर में जब एक नाद भी
रघुपति सिन्धु किनारे,<br>
+
उठा नहीं सागर से
बैठे पढ़ते रहे छन्द<br>
+
उठी अधीर धधक पौरुष की
अनुनय के प्यारे-प्यारे <br><br>
+
आग राम के शर से
  
उत्तर में जब एक नाद भी<br>
+
सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
उठा नहीं सागर से<br>
+
करता आ गिरा शरण में
उठी अधीर धधक पौरुष की<br>
+
चरण पूज दासता ग्रहण की
आग राम के शर से ।<br><br>
+
बँधा मूढ़ बन्धन में।
  
सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि<br>
+
सच पूछो , तो शर में ही
करता आ गिरा शरण में<br>
+
बसती है दीप्ति विनय की
चरण पूज दासता ग्रहण की<br>
+
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
बँधा मूढ़ बन्धन में।<br><br>
+
जिसमें शक्ति विजय की ।
  
सच पूछो , तो शर में ही<br>
+
सहनशीलता, क्षमा, दया को
बसती है दीप्ति विनय की<br>
+
तभी पूजता जग है
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का<br>
+
बल का दर्प चमकता उसके
जिसमें शक्ति विजय की ।<br><br>
+
पीछे जब जगमग है।
 
+
</poem>
सहनशीलता, क्षमा, दया को<br>
+
तभी पूजता जग है<br>
+
बल का दर्प चमकता उसके<br>
+
पीछे जब जगमग है।<br><br>
+

10:17, 7 नवम्बर 2011 का अवतरण

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा ?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।

अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो ।

तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे ।

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से ।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।

सच पूछो , तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की ।

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।