"ऊँचाई / अटल बिहारी वाजपेयी" के अवतरणों में अंतर
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− | मौत की तरह ठंडी होती है।<br> | + | :::मौत की तरह ठंडी होती है।<br> |
− | खेलती, खिल-खिलाती नदी,<br> | + | :::खेलती, खिल-खिलाती नदी,<br> |
− | जिसका रूप धारण कर,<br> | + | :::जिसका रूप धारण कर,<br> |
− | अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।<br><br> | + | :::अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।<br><br> |
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उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,<br><br> | उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,<br><br> | ||
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− | वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,<br> | + | :::वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,<br> |
− | ना कोई थका-मांदा बटोही,<br> | + | :::ना कोई थका-मांदा बटोही,<br> |
− | उसकी छांव में पलभर पलक ही झपका सकता है।<br><br> | + | :::उसकी छांव में पलभर पलक ही झपका सकता है।<br><br> |
सच्चाई यह है कि<br> | सच्चाई यह है कि<br> | ||
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आकाश-पाताल की दूरी है।<br><br> | आकाश-पाताल की दूरी है।<br><br> | ||
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− | उतना एकाकी होता है,<br> | + | :::उतना एकाकी होता है,<br> |
− | हर भार को स्वयं ढोता है,<br> | + | :::हर भार को स्वयं ढोता है,<br> |
− | चेहरे पर मुस्कानें चिपका,<br> | + | :::चेहरे पर मुस्कानें चिपका,<br> |
− | मन ही मन रोता है।<br><br> | + | :::मन ही मन रोता है।<br><br> |
जरूरी यह है कि<br> | जरूरी यह है कि<br> | ||
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नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,<br><br> | नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,<br><br> | ||
− | किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,<br> | + | :::किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,<br> |
− | कि पाँव तले दूब ही न जमे,<br> | + | :::कि पाँव तले दूब ही न जमे,<br> |
− | कोई कांटा न चुभे,<br> | + | :::कोई कांटा न चुभे,<br> |
− | कोई कलि न खिले।<br><br> | + | :::कोई कलि न खिले।<br><br> |
न वसंत हो, न पतझड़,<br> | न वसंत हो, न पतझड़,<br> | ||
पंक्ति 76: | पंक्ति 76: | ||
मात्र अकेलापन का सन्नाटा।<br><br> | मात्र अकेलापन का सन्नाटा।<br><br> | ||
− | मेरे प्रभु!<br> | + | :::मेरे प्रभु!<br> |
− | मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,<br> | + | :::मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,<br> |
− | गैरों को गले न लगा सकूँ,<br> | + | :::गैरों को गले न लगा सकूँ,<br> |
− | इतनी रुखाई कभी मत देना।<br><br> | + | :::इतनी रुखाई कभी मत देना।<br><br> |
17:57, 22 अगस्त 2006 का अवतरण
लेखक: अटल बिहारी वाजपेयी
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ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।
- जमती है सिर्फ बर्फ,
- जो, कफन की तरह सफेद और,
- मौत की तरह ठंडी होती है।
- खेलती, खिल-खिलाती नदी,
- जिसका रूप धारण कर,
- अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।
- जमती है सिर्फ बर्फ,
ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनन्दन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,
- किन्तु कोई गौरैया,
- वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
- ना कोई थका-मांदा बटोही,
- उसकी छांव में पलभर पलक ही झपका सकता है।
- किन्तु कोई गौरैया,
सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बंटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।
- जो जितना ऊँचा,
- उतना एकाकी होता है,
- हर भार को स्वयं ढोता है,
- चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
- मन ही मन रोता है।
- जो जितना ऊँचा,
जरूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूंट सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।
- भीड़ में खो जाना,
- यादों में डूब जाना,
- स्वयं को भूल जाना,
- अस्तित्व को अर्थ,
- जीवन को सुगंध देता है।
- भीड़ में खो जाना,
धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इन्सानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,
- किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
- कि पाँव तले दूब ही न जमे,
- कोई कांटा न चुभे,
- कोई कलि न खिले।
- किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
न वसंत हो, न पतझड़,
हों सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलापन का सन्नाटा।
- मेरे प्रभु!
- मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
- गैरों को गले न लगा सकूँ,
- इतनी रुखाई कभी मत देना।
- मेरे प्रभु!