भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 4" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
 
|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
 
}}
 
}}
'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,  
+
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
  
:शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
+
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
 
+
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,  
+
 
+
:शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
+
  
 +
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
 
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
 
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
  
 
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
 
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
 +
'भूलोक, अतल, पाताल देख,
  
 +
गत और अनागत काल देख,
 +
यह देख जगत का आदि-सृजन,
  
'भूलोक, अतल, पाताल देख,
+
यह देख, महाभारत का रण,
 
+
:गत और अनागत काल देख,
+
 
+
यह देख जगत का आदि-सृजन,
+
 
+
:यह देख, महाभारत का रण,
+
 
+
 
मृतकों से पटी हुई भू है,
 
मृतकों से पटी हुई भू है,
  
 
पहचान, कहाँ इसमें तू है।
 
पहचान, कहाँ इसमें तू है।
 +
'अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
  
 +
पद के नीचे पाताल देख,
 +
मुट्ठी में तीनों काल देख,
  
'अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
+
मेरा स्वरूप विकराल देख।
 
+
:पद के नीचे पाताल देख,
+
 
+
मुट्ठी में तीनों काल देख,
+
 
+
:मेरा स्वरूप विकराल देख।
+
 
+
 
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
 
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
  
 
फिर लौट मुझी में आते हैं।
 
फिर लौट मुझी में आते हैं।
 +
'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
  
 +
साँसों में पाता जन्म पवन,
 +
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
  
'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
+
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
 
+
:साँसों में पाता जन्म पवन,
+
 
+
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
+
 
+
:हँसने लगती है सृष्टि उधर!
+
 
+
 
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
 
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
  
 
छा जाता चारों ओर मरण।
 
छा जाता चारों ओर मरण।
 +
'बाँधने मुझे तो आया है,
  
 +
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
 +
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
  
'बाँधने मुझे तो आया है,
+
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
 
+
:जंजीर बड़ी क्या लाया है?
+
 
+
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
+
 
+
:पहले तो बाँध अनन्त गगन।
+
 
+
 
सूने को साध न सकता है,
 
सूने को साध न सकता है,
  
 
वह मुझे बाँध कब सकता है?
 
वह मुझे बाँध कब सकता है?
 +
'हित-वचन नहीं तूने माना,
  
 +
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
 +
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
  
'हित-वचन नहीं तूने माना,
+
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
 
+
:मैत्री का मूल्य न पहचाना,
+
 
+
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
+
 
+
:अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
+
 
+
 
याचना नहीं, अब रण होगा,
 
याचना नहीं, अब रण होगा,
  
 
जीवन-जय या कि मरण होगा।
 
जीवन-जय या कि मरण होगा।
 +
'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
  
 +
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
 +
फण शेषनाग का डोलेगा,
  
'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
+
विकराल काल मुँह खोलेगा।
 
+
:बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
+
 
+
फण शेषनाग का डोलेगा,
+
 
+
:विकराल काल मुँह खोलेगा।
+
 
+
 
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
 
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
  
 
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
 
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
 +
'भाई पर भाई टूटेंगे,
  
 +
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
 +
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
  
'भाई पर भाई टूटेंगे,
+
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
 
+
:विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
+
 
+
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
+
 
+
:सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
+
 
+
 
आखिर तू भूशायी होगा,
 
आखिर तू भूशायी होगा,
  
 
हिंसा का पर, दायी होगा।'
 
हिंसा का पर, दायी होगा।'
 +
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
  
 +
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
 +
केवल दो नर ना अघाते थे,
  
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
+
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
 
+
:चुप थे या थे बेहोश पड़े।
+
 
+
केवल दो नर ना अघाते थे,
+
 
+
:धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
+
 
+
 
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
 
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
  
 
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!
 
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!
 +
</poem>

21:48, 30 अगस्त 2020 के समय का अवतरण

'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,

शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,

शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,

हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
'भूलोक, अतल, पाताल देख,

गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,

यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,

पहचान, कहाँ इसमें तू है।
'अम्बर में कुन्तल-जाल देख,

पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,

मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,

फिर लौट मुझी में आते हैं।
'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,

साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,

हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,

छा जाता चारों ओर मरण।
'बाँधने मुझे तो आया है,

जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,

पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,

वह मुझे बाँध कब सकता है?
'हित-वचन नहीं तूने माना,

मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,

अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,

जीवन-जय या कि मरण होगा।
'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,

बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,

विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।

फिर कभी नहीं जैसा होगा।
'भाई पर भाई टूटेंगे,

विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,

सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,

हिंसा का पर, दायी होगा।'
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,

चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,

धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,

दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!