"अब तुम कहाँ हो मेरे वृक्ष ? / हिमांशु पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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− | + | छत पर झुक आयी तुम्हारी डालियों के बीच | |
− | तुम्हारे | + | देखता कितने स्वप्न |
− | + | कितनी कोमल कल्पनाएँ | |
+ | तुम्हारे वातायनों से मुझ पर आकृष्ट हुआ करतीं, | ||
+ | कितनी बार हुई थी वृष्टि | ||
+ | और मैं तुम्हारे पास खड़ा भींगता रहा | ||
+ | कितनी बार क्रुद्ध हुआ सूर्य | ||
+ | और मैं खड़ा रीझता रहा तुम्हारी छाया में | ||
+ | कितनी बार पतझर का दंश झेलकर भी | ||
+ | तुम हरित हुए नवीन जीवन चेतना का संदेश देने | ||
+ | और खिलखिला उठे | ||
+ | मेरे साथ अपने किसलय में | ||
+ | और न जाने कितनी बार आया सावन | ||
+ | जब अपनी ही डालों के झूले में | ||
+ | मेरे साथ झूलने लगे थे तुम - | ||
+ | पर अब तुम कहाँ हो मेरे वृक्ष ? | ||
− | + | और आज जब तुम नहीं हो | |
− | + | तो वृष्टि भी यत्किंचित है | |
− | + | सूर्यातप भी मारक नहीं रहा | |
+ | अब पतझड़ के पास भी नहीं रहा कोई योग्य पात्र | ||
+ | और जानते हो तुम ? | ||
+ | सावन भी अब सड़कों पर लडखडाया चला करता है । | ||
− | + | छिन्न भिन्न हो गए हैं स्वप्न | |
− | + | विलीन हो गयी हैं कल्पनाएँ | |
− | + | क्योंकि हृदय हो गया है वस्तु | |
− | + | और वस्तु उपयोगितावादी व वैकल्पिक होती है । | |
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18:29, 9 मई 2009 के समय का अवतरण
छत पर झुक आयी तुम्हारी डालियों के बीच
देखता कितने स्वप्न
कितनी कोमल कल्पनाएँ
तुम्हारे वातायनों से मुझ पर आकृष्ट हुआ करतीं,
कितनी बार हुई थी वृष्टि
और मैं तुम्हारे पास खड़ा भींगता रहा
कितनी बार क्रुद्ध हुआ सूर्य
और मैं खड़ा रीझता रहा तुम्हारी छाया में
कितनी बार पतझर का दंश झेलकर भी
तुम हरित हुए नवीन जीवन चेतना का संदेश देने
और खिलखिला उठे
मेरे साथ अपने किसलय में
और न जाने कितनी बार आया सावन
जब अपनी ही डालों के झूले में
मेरे साथ झूलने लगे थे तुम -
पर अब तुम कहाँ हो मेरे वृक्ष ?
और आज जब तुम नहीं हो
तो वृष्टि भी यत्किंचित है
सूर्यातप भी मारक नहीं रहा
अब पतझड़ के पास भी नहीं रहा कोई योग्य पात्र
और जानते हो तुम ?
सावन भी अब सड़कों पर लडखडाया चला करता है ।
छिन्न भिन्न हो गए हैं स्वप्न
विलीन हो गयी हैं कल्पनाएँ
क्योंकि हृदय हो गया है वस्तु
और वस्तु उपयोगितावादी व वैकल्पिक होती है ।