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"काशी के घाट पर / प्रभाकर माचवे" के अवतरणों में अंतर

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<poem>
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निशि मेघाकुल...
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        अमित असित धूमिल मेघों से भरा हुआ नभ का पड़ाव
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शशि की झिलमिल —
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        छोटी-सी लहरों में डगमग पथहीन नाव
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किस मृगनैनी की चपल-चपल —
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        चितवन की सुधि से परिचालित युव-मनोभाव !
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शशि न देख किसी का दिल
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        रह-रह कस के, स्मर कर प्रिय का दुराव —
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छिन में आलोकित हो उठती शत-शत तरंग
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        मन में आलोड़ित सौ उमंग, सिहरते अंग
 +
                  उड़-उड़ जाते हैं सुधि-विहंग
 +
                  कुछ दिशा-रहित, कुछ लक्ष्य-भ्रान्त
 +
                  कुछ सखा-सहित, कुछ यों असंग — 
 +
                                              सब ही अशान्त;
  
निशि मेघाकुल...<br>
+
ज्योत्स्ना का छिन में कुम्हलाता  
:अमित असित धूमिल मेघों से भरा हुआ नभ का पड़ाव<br>
+
        लहरिल सम्मोहक मदिर मान  
शशि की झिलमिल-<br>
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जोगी हो मोहातुर गाता  
:छोटी-सी लहरों में डगमग पथहीन नाव<br>
+
        मन में तुषार-मय विदा-गान;  
किस मृगनैनी की चपल-चपल-<br>
+
प्रत्यक्ष भाव जब सपनों की संचित रुझान  
:चितवन की सुधि से परिचालित युव-मनोभाव !<br>
+
        जब बाँध रखे वक्ष से वक्ष  
शशि न देख किसी का दिल<br>
+
                  बाँहो में भर कर विकल बाँह  
:रह-रह कस के, स्मर कर प्रिय का दुराव-<br>
+
        जाना था किसने नेह राह का  
छिन में आलोकित हो उठती शत-शत तरंग<br>
+
                  यह विषाक्त भवितव्य, आह !  
:मन में आलोड़ित सौ उमंग, सिहरते अंग<br>
+
बँधना प्राणों से मुक्त प्राण...  
::उड़-उड़ जाते हैं सुधि-विहंग<br>
+
है दक्ष-यज्ञ का संविधान  
::कुछ दिशा-रहित, कुछ लक्ष्य-भ्रान्त<br>
+
उर की ऊमा का लक्ष-लक्ष अंशों में पाना मरण-दान !  
::कुछ सखा-सहित, कुछ यों असंग-<br>
+
अब डोंगी भी हिल-डोल उठी, पाकर गंगा का दूर तीर  
:::सब ही अशान्त;<br>
+
मनुआ अधीर, नयन के नीर से बोझिल गहरी बिसुध पीर  
ज्योत्स्ना का छिन में कुम्हलाता<br>
+
छितरा-छितरा-सा व्योमघाट पर छायाभा का अजब साथ
:लहरिल सम्मोहक मदिर मान<br>
+
आखिर उर में भी डोल उठी, कुछ मावस, कुछ रुपहली रात !  
जोगी हो मोहातुर गाता<br>
+
                  छू चली पुरातन नेह-बात  
:मन में तुषार-मय विदा-गान;<br>
+
                  रोमल हो उठे गात-गात।  
प्रत्यक्ष भाव जब सपनों की संचित रुझान<br>
+
टिम-टिम तारा ऊपर सभीत  
:जब बाँध रखे वक्ष से वक्ष<br>
+
खेया का कम्पित कण्ठ-गीत  
::बाँहो में भर कर विकल बाँह<br>
+
आ भर लूँ हिय में तुझे मीत...  
:जाना था किसने नेह राह का<br>
+
आ पास और उत्कटता से
::यह विषाक्त भवितव्य, आह !<br>
+
        उत्ताल लहर की मर्ज़ी पर  
बँधना प्राणों से मुक प्राण...<br>
+
        खो दें जीवन पल-कल्प प्रहर;  
है दक्ष-यज्ञ का संविधान<br>
+
        एकान्त सत्य बहते रहना
उर की ऊमा का लक्ष-लक्ष अंशों में पाना मरण-दान !<br>
+
        निज बिधा किसी से क्या कहना ?  
अब डोंगी भी हिल-डोल उठी, पाकर गंगा का दूर तीर<br>
+
        सुधि-सम्बल ले चिर-एकाकी  
मनुआ अधीर, नयन के नीर से बोझिल गहरी बिसुध पीर<br>
+
 
छितरा-छितरा-सा व्योमघाट पर छायाभा का अजब साथ-<br>
+
                  बस सफ़र-सफ़र;  
आखिर उर में भी डोल उठी, कुछ मावस, कुछ रुपहली रात !<br>
+
 
::छू चली पुरातन नेह-बात<br>
+
आ पास और तन्मयता से-  
::रोमल हो उठे गात-गात।<br>
+
        अब इन लहरों की मर्ज़ी पर,  
टिम-टिम तारा ऊपर सभीत<br>
+
        मिल कर जीवन में जीवन-स्वर,  
खेया का कम्पित कंठ-गीत<br>
+
        हो जाएँ अमर, निर्भर, अन्तर  
आ भर लूँ हिय में तुझे मीत...<br>
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        उत्ताल तरंगों की गति पर —       
आ पास और उत्कटता से...<br>
+
क्या पता कहाँ आना-जाना क्या कूलों की परवाह, पिया !
:उत्ताल लहर की मर्ज़ी पर<br>
+
इस क्षण दो ओठों में गाना दो ओठों में हो चाह, पिया !  
:खो दें जीवन पल-कल्प प्रहर;<br>
+
वह हिलराता, मदमाता हो, मौजें लेता दरियाव, पिया !  
:एकान्त सत्य बहते रहना-<br>
+
मेघों में मुँह ढाँके मयंक, सुधि मन में गिनती घाव, पिया !  
:निज बिधा किसी से क्या कहना ?<br>
+
</poem>
:सुधि-सम्बल ले चिर-एकाकी<br>
+
::बस सफ़र-सफ़र;<br>
+
आ पास और तन्मयता से-<br>
+
:अब इन लहरों की मर्ज़ी पर,<br>
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:मिल कर जीवन में जीवन-स्वर,<br>
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:हो जायें अमर, निर्भर, अन्तर<br>
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:उत्ताल परंगों की गति पर-<br>
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क्या पता कहाँ आना-जाना क्या कूलों की परवाह, पिया !<br>
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इस क्षण दो ओठों में गाना दो ओठों में हो चाह, पिया !<br>
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वह हिलराता, मदमाता हो, मौजें लेता दरियाव, पिया !<br>
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मेघों में मुँह ढाँके मयंक, सुधि मन में गिनती घाव, पिया !<br><br>
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18:46, 2 अगस्त 2020 के समय का अवतरण

निशि मेघाकुल...
         अमित असित धूमिल मेघों से भरा हुआ नभ का पड़ाव
शशि की झिलमिल —
         छोटी-सी लहरों में डगमग पथहीन नाव
किस मृगनैनी की चपल-चपल —
         चितवन की सुधि से परिचालित युव-मनोभाव !
शशि न देख किसी का दिल
         रह-रह कस के, स्मर कर प्रिय का दुराव —
छिन में आलोकित हो उठती शत-शत तरंग
         मन में आलोड़ित सौ उमंग, सिहरते अंग
                  उड़-उड़ जाते हैं सुधि-विहंग
                  कुछ दिशा-रहित, कुछ लक्ष्य-भ्रान्त
                  कुछ सखा-सहित, कुछ यों असंग —
                                              सब ही अशान्त;

ज्योत्स्ना का छिन में कुम्हलाता
         लहरिल सम्मोहक मदिर मान
जोगी हो मोहातुर गाता
         मन में तुषार-मय विदा-गान;
प्रत्यक्ष भाव जब सपनों की संचित रुझान
         जब बाँध रखे वक्ष से वक्ष
                  बाँहो में भर कर विकल बाँह
         जाना था किसने नेह राह का
                  यह विषाक्त भवितव्य, आह !
बँधना प्राणों से मुक्त प्राण...
है दक्ष-यज्ञ का संविधान
उर की ऊमा का लक्ष-लक्ष अंशों में पाना मरण-दान !
अब डोंगी भी हिल-डोल उठी, पाकर गंगा का दूर तीर
मनुआ अधीर, नयन के नीर से बोझिल गहरी बिसुध पीर
छितरा-छितरा-सा व्योमघाट पर छायाभा का अजब साथ —
आखिर उर में भी डोल उठी, कुछ मावस, कुछ रुपहली रात !
                  छू चली पुरातन नेह-बात
                  रोमल हो उठे गात-गात।
टिम-टिम तारा ऊपर सभीत
खेया का कम्पित कण्ठ-गीत
आ भर लूँ हिय में तुझे मीत...
आ पास और उत्कटता से
         उत्ताल लहर की मर्ज़ी पर
         खो दें जीवन पल-कल्प प्रहर;
         एकान्त सत्य बहते रहना —
         निज बिधा किसी से क्या कहना ?
         सुधि-सम्बल ले चिर-एकाकी

                  बस सफ़र-सफ़र;

आ पास और तन्मयता से-
         अब इन लहरों की मर्ज़ी पर,
         मिल कर जीवन में जीवन-स्वर,
         हो जाएँ अमर, निर्भर, अन्तर
         उत्ताल तरंगों की गति पर —
क्या पता कहाँ आना-जाना क्या कूलों की परवाह, पिया !
इस क्षण दो ओठों में गाना दो ओठों में हो चाह, पिया !
वह हिलराता, मदमाता हो, मौजें लेता दरियाव, पिया !
मेघों में मुँह ढाँके मयंक, सुधि मन में गिनती घाव, पिया !