"प्रयाग / नरेन्द्र शर्मा" के अवतरणों में अंतर
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मैं बन्दी बन्दी मधुप, और यह गुंजित मम स्नेहानुराग, | मैं बन्दी बन्दी मधुप, और यह गुंजित मम स्नेहानुराग, | ||
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संगम की गोदी में पोषित शोभित तू शतदल प्रयाग ! | संगम की गोदी में पोषित शोभित तू शतदल प्रयाग ! | ||
विधि की बाहें गंगा-यमुना तेरे सुवक्ष पर कंठहार,-- | विधि की बाहें गंगा-यमुना तेरे सुवक्ष पर कंठहार,-- | ||
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लहराती आतीं गिरि-पथ से, लहरों में भर शोभा अपार ! | लहराती आतीं गिरि-पथ से, लहरों में भर शोभा अपार ! | ||
देखा करता हूँ गंगा में उगता गुलाब-सा अरुण प्रात, | देखा करता हूँ गंगा में उगता गुलाब-सा अरुण प्रात, | ||
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यमुना की नीली लहरों में नहला तन ऊठती नित्य रात ! | यमुना की नीली लहरों में नहला तन ऊठती नित्य रात ! | ||
गंगा-यमुना की लहरों में कण-कण में मणि नयनाभिराम | गंगा-यमुना की लहरों में कण-कण में मणि नयनाभिराम | ||
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बिखरा देती है साँझ हुए नारंगी रँग की शान्त शाम ! | बिखरा देती है साँझ हुए नारंगी रँग की शान्त शाम ! | ||
तेरे प्रसाद के लिए, तीर्थ ! आते थे दानी हर्ष जहाँ | तेरे प्रसाद के लिए, तीर्थ ! आते थे दानी हर्ष जहाँ | ||
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पल्लव के रुचिर किरीट पहन आता अब भी ऋतुराज वहाँ ! | पल्लव के रुचिर किरीट पहन आता अब भी ऋतुराज वहाँ ! | ||
कर दैन्य-दुःख-हेमन्त-अन्त वैभव से भर सब शुष्क वृन्त | कर दैन्य-दुःख-हेमन्त-अन्त वैभव से भर सब शुष्क वृन्त | ||
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हर साल हर्ष के ही समान सुख-हर्ष-पुष्प लाता वसन्त ! | हर साल हर्ष के ही समान सुख-हर्ष-पुष्प लाता वसन्त ! | ||
स्वर्णिम मयूर-से नृत्य करते उपवन में गोल्ड मोहर, | स्वर्णिम मयूर-से नृत्य करते उपवन में गोल्ड मोहर, | ||
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कुहुका करती पिक छिप छिप कर तरुओं में रत प्रत्येक प्रहर ! | कुहुका करती पिक छिप छिप कर तरुओं में रत प्रत्येक प्रहर ! | ||
भर जाती मीठी सौरभ-से कड़वे नीमों की डाल डाल, | भर जाती मीठी सौरभ-से कड़वे नीमों की डाल डाल, | ||
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लद जाते चलदल पर असंख्य नवदल प्रवाल के जाल लाल ! | लद जाते चलदल पर असंख्य नवदल प्रवाल के जाल लाल ! | ||
'मधु आया', कहते हँस प्रसून, पल्लव 'हाँ' कह कह हिल जाते | 'मधु आया', कहते हँस प्रसून, पल्लव 'हाँ' कह कह हिल जाते | ||
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आलिंगन भर, मधु-गंध-भरी बहती समीर जब दिन आते ! | आलिंगन भर, मधु-गंध-भरी बहती समीर जब दिन आते ! | ||
शुचि स्वच्छ और चौड़ी सड़कों के हरे-भरे तेरे घर में, | शुचि स्वच्छ और चौड़ी सड़कों के हरे-भरे तेरे घर में, | ||
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सबको सुख से भर देता है ऋतुपति पल भर के अन्तर में ! | सबको सुख से भर देता है ऋतुपति पल भर के अन्तर में ! | ||
मधु के दिन पर कितने दिन के ! -- आतप में तप जल जाता सब | मधु के दिन पर कितने दिन के ! -- आतप में तप जल जाता सब | ||
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तू सिखलाता, कैसे केवल पल भर का है जग का वैभव ! | तू सिखलाता, कैसे केवल पल भर का है जग का वैभव ! | ||
इस स्वर्ण-परीक्षा से दीक्षा ले ज्ञानी बन मन-नीरजात, | इस स्वर्ण-परीक्षा से दीक्षा ले ज्ञानी बन मन-नीरजात, | ||
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शीतल हो जाता, आती है जब सावन की मुख-सरस रात ! | शीतल हो जाता, आती है जब सावन की मुख-सरस रात ! | ||
जब रहा-सहा दुख धुल जाता, मन शुभ्र शरद्-सा खिल जाता | जब रहा-सहा दुख धुल जाता, मन शुभ्र शरद्-सा खिल जाता | ||
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यों दीपमिलिका में आलोकित कर पथ विमल शरद् आता ! | यों दीपमिलिका में आलोकित कर पथ विमल शरद् आता ! | ||
ऋतुओं का पहिया इसी तरह घूमा करता प्रतिवर्ष यहाँ, | ऋतुओं का पहिया इसी तरह घूमा करता प्रतिवर्ष यहाँ, | ||
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तेरे प्रसाद के लिए तीर्थ ! आते थे दानी हर्ष जहाँ ! | तेरे प्रसाद के लिए तीर्थ ! आते थे दानी हर्ष जहाँ ! | ||
खुसरू का बाग सिखाता है, है धूप-छाँह-सी यह माया, | खुसरू का बाग सिखाता है, है धूप-छाँह-सी यह माया, | ||
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वृक्षों के नीचे लिख जाती है यों ही नित चंचल छाया ! | वृक्षों के नीचे लिख जाती है यों ही नित चंचल छाया ! | ||
वह दुर्ग !--जहाँ उस शान्ति-स्तम्भ में मूर्तिमान अब तक अशोक, | वह दुर्ग !--जहाँ उस शान्ति-स्तम्भ में मूर्तिमान अब तक अशोक, | ||
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था गर्व कभी, पर आज जगाता है उर उर में क्षोभ-शोक ! | था गर्व कभी, पर आज जगाता है उर उर में क्षोभ-शोक ! | ||
तू सीख त्याग, तू सीख प्रेम, तू नियम-नेम ले अज्ञानी-- | तू सीख त्याग, तू सीख प्रेम, तू नियम-नेम ले अज्ञानी-- | ||
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क्या पत्थर पर अब तक अंकित यह दया-द्रवित कोमल वाणी?-- | क्या पत्थर पर अब तक अंकित यह दया-द्रवित कोमल वाणी?-- | ||
जिसमें बोले होंगे गद्गद वे शान्ति-स्नेह के अभिलाषी-- | जिसमें बोले होंगे गद्गद वे शान्ति-स्नेह के अभिलाषी-- | ||
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दृग भर भर शोकाकुल अशोक; सम्राट्, भिक्षु औ' संन्यासी ! | दृग भर भर शोकाकुल अशोक; सम्राट्, भिक्षु औ' संन्यासी ! | ||
उस पत्थर अंकित है क्या ? क्या त्याग, शान्ति, तप की वाणी ? | उस पत्थर अंकित है क्या ? क्या त्याग, शान्ति, तप की वाणी ? | ||
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जिससे सीखें जीवन-संयम, सर्वत्र-शान्ति सब अज्ञानी ! | जिससे सीखें जीवन-संयम, सर्वत्र-शान्ति सब अज्ञानी ! | ||
संदेश शान्ति का ही होगा, पर अब जो कुछ वह लाचारी-- | संदेश शान्ति का ही होगा, पर अब जो कुछ वह लाचारी-- | ||
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बन्दी बल-हीन गुलामों की जड़मूक बेबसी बेचारी ! | बन्दी बल-हीन गुलामों की जड़मूक बेबसी बेचारी ! | ||
दुख भी हलका हो जाता है अब देख देख परिवर्तन-क्रम, | दुख भी हलका हो जाता है अब देख देख परिवर्तन-क्रम, | ||
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फिर कभी सोचने लगता हूँ यह जीवन सुख-दुख का संगम ! | फिर कभी सोचने लगता हूँ यह जीवन सुख-दुख का संगम ! | ||
बेबसी सदा की नहीं, सदा की नहीं गुलामी भी मेरी, | बेबसी सदा की नहीं, सदा की नहीं गुलामी भी मेरी, | ||
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हे काल क्रूर, सुन ! कभी नहीं क्या करवट बदलेगी तेरी ? | हे काल क्रूर, सुन ! कभी नहीं क्या करवट बदलेगी तेरी ? | ||
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यह जीवन चंचल छाया है, बदला करता प्रतिपल करवट, | यह जीवन चंचल छाया है, बदला करता प्रतिपल करवट, | ||
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मेरे प्रयाग की छाया में पर, अब तक जीवित अक्षयवट ! -- | मेरे प्रयाग की छाया में पर, अब तक जीवित अक्षयवट ! -- | ||
क्या इसके अजर-पत्र पर चढ़ जीवन जीतेगा महाप्रलय ? | क्या इसके अजर-पत्र पर चढ़ जीवन जीतेगा महाप्रलय ? | ||
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कह, जीवन में क्षमता है यदि तो तम से हो प्रकाश निर्भय ! | कह, जीवन में क्षमता है यदि तो तम से हो प्रकाश निर्भय ! | ||
मैं भी फिर नित निर्भय खोजूँ शाश्वत प्रकाश अक्षय जीवन, | मैं भी फिर नित निर्भय खोजूँ शाश्वत प्रकाश अक्षय जीवन, | ||
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निर्भय गाऊँ, मैं शान्त करूँ इस मृत्युभित जग का क्रन्दन ! | निर्भय गाऊँ, मैं शान्त करूँ इस मृत्युभित जग का क्रन्दन ! | ||
है नये जन्म का नाम मृत्यु, है नई शक्ति का नाम ह्रास, -- | है नये जन्म का नाम मृत्यु, है नई शक्ति का नाम ह्रास, -- | ||
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है आदि अन्त का, अन्त आदि का यों सब दिन क्रम-बद्ध ग्रास ! | है आदि अन्त का, अन्त आदि का यों सब दिन क्रम-बद्ध ग्रास ! | ||
प्यारे प्रयाग ! तेरे उर में ही था यह अन्तर-स्वर निकला, | प्यारे प्रयाग ! तेरे उर में ही था यह अन्तर-स्वर निकला, | ||
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था कंठ खुला, काँटा निकला, स्वर शुद्ध हुआ, कवि-हृदय मिला ! | था कंठ खुला, काँटा निकला, स्वर शुद्ध हुआ, कवि-हृदय मिला ! | ||
कवि-हृदय मिला, मन-मुकुल खिला, अर्पित है जो श्री चरणों में, | कवि-हृदय मिला, मन-मुकुल खिला, अर्पित है जो श्री चरणों में, | ||
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पर हो न सकेगा अभिनन्दन मेरे इन कृत्रिम वर्णों में ! | पर हो न सकेगा अभिनन्दन मेरे इन कृत्रिम वर्णों में ! | ||
ये कृत्रिम, तू सत्-पृकृति-रूप, हे पूर्ण-पुरातन तीर्थराज ! | ये कृत्रिम, तू सत्-पृकृति-रूप, हे पूर्ण-पुरातन तीर्थराज ! | ||
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क्षमता दे, जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज ! | क्षमता दे, जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज ! | ||
दे शुभाशीस, हे पुण्यधाम !, वाणी कल्याणी हो प्रकाम-- | दे शुभाशीस, हे पुण्यधाम !, वाणी कल्याणी हो प्रकाम-- | ||
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स्वीकृत हो अब श्री चरणों में बन्दी का यह अन्तिम प्रणाम ! | स्वीकृत हो अब श्री चरणों में बन्दी का यह अन्तिम प्रणाम ! | ||
तेरे चरणों में शीश धरे आये होंगे कितने नरेन्द्र, | तेरे चरणों में शीश धरे आये होंगे कितने नरेन्द्र, | ||
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कितने ही आये, चले गये, कुछ दिन रह अभिमानी महेन्द्र ! | कितने ही आये, चले गये, कुछ दिन रह अभिमानी महेन्द्र ! | ||
मैं भी नरेन्द्र, पर इन्द्र नहीं, तेरा बन्दी हूँ, तीर्थराज ! | मैं भी नरेन्द्र, पर इन्द्र नहीं, तेरा बन्दी हूँ, तीर्थराज ! | ||
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क्षमता दे जिससे कर पाऊँ तेरा अन्न्त गुण-गान आज !! | क्षमता दे जिससे कर पाऊँ तेरा अन्न्त गुण-गान आज !! | ||
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12:20, 8 दिसम्बर 2009 का अवतरण
१
मैं बन्दी बन्दी मधुप, और यह गुंजित मम स्नेहानुराग,
संगम की गोदी में पोषित शोभित तू शतदल प्रयाग !
विधि की बाहें गंगा-यमुना तेरे सुवक्ष पर कंठहार,--
लहराती आतीं गिरि-पथ से, लहरों में भर शोभा अपार !
देखा करता हूँ गंगा में उगता गुलाब-सा अरुण प्रात,
यमुना की नीली लहरों में नहला तन ऊठती नित्य रात !
गंगा-यमुना की लहरों में कण-कण में मणि नयनाभिराम
बिखरा देती है साँझ हुए नारंगी रँग की शान्त शाम !
तेरे प्रसाद के लिए, तीर्थ ! आते थे दानी हर्ष जहाँ
पल्लव के रुचिर किरीट पहन आता अब भी ऋतुराज वहाँ !
कर दैन्य-दुःख-हेमन्त-अन्त वैभव से भर सब शुष्क वृन्त
हर साल हर्ष के ही समान सुख-हर्ष-पुष्प लाता वसन्त !
स्वर्णिम मयूर-से नृत्य करते उपवन में गोल्ड मोहर,
कुहुका करती पिक छिप छिप कर तरुओं में रत प्रत्येक प्रहर !
भर जाती मीठी सौरभ-से कड़वे नीमों की डाल डाल,
लद जाते चलदल पर असंख्य नवदल प्रवाल के जाल लाल !
'मधु आया', कहते हँस प्रसून, पल्लव 'हाँ' कह कह हिल जाते
आलिंगन भर, मधु-गंध-भरी बहती समीर जब दिन आते !
शुचि स्वच्छ और चौड़ी सड़कों के हरे-भरे तेरे घर में,
सबको सुख से भर देता है ऋतुपति पल भर के अन्तर में !
मधु के दिन पर कितने दिन के ! -- आतप में तप जल जाता सब
तू सिखलाता, कैसे केवल पल भर का है जग का वैभव !
इस स्वर्ण-परीक्षा से दीक्षा ले ज्ञानी बन मन-नीरजात,
शीतल हो जाता, आती है जब सावन की मुख-सरस रात !
जब रहा-सहा दुख धुल जाता, मन शुभ्र शरद्-सा खिल जाता
यों दीपमिलिका में आलोकित कर पथ विमल शरद् आता !
ऋतुओं का पहिया इसी तरह घूमा करता प्रतिवर्ष यहाँ,
तेरे प्रसाद के लिए तीर्थ ! आते थे दानी हर्ष जहाँ !
खुसरू का बाग सिखाता है, है धूप-छाँह-सी यह माया,
वृक्षों के नीचे लिख जाती है यों ही नित चंचल छाया !
वह दुर्ग !--जहाँ उस शान्ति-स्तम्भ में मूर्तिमान अब तक अशोक,
था गर्व कभी, पर आज जगाता है उर उर में क्षोभ-शोक !
तू सीख त्याग, तू सीख प्रेम, तू नियम-नेम ले अज्ञानी--
क्या पत्थर पर अब तक अंकित यह दया-द्रवित कोमल वाणी?--
जिसमें बोले होंगे गद्गद वे शान्ति-स्नेह के अभिलाषी--
दृग भर भर शोकाकुल अशोक; सम्राट्, भिक्षु औ' संन्यासी !
उस पत्थर अंकित है क्या ? क्या त्याग, शान्ति, तप की वाणी ?
जिससे सीखें जीवन-संयम, सर्वत्र-शान्ति सब अज्ञानी !
संदेश शान्ति का ही होगा, पर अब जो कुछ वह लाचारी--
बन्दी बल-हीन गुलामों की जड़मूक बेबसी बेचारी !
दुख भी हलका हो जाता है अब देख देख परिवर्तन-क्रम,
फिर कभी सोचने लगता हूँ यह जीवन सुख-दुख का संगम !
बेबसी सदा की नहीं, सदा की नहीं गुलामी भी मेरी,
हे काल क्रूर, सुन ! कभी नहीं क्या करवट बदलेगी तेरी ?
२
यह जीवन चंचल छाया है, बदला करता प्रतिपल करवट,
मेरे प्रयाग की छाया में पर, अब तक जीवित अक्षयवट ! --
क्या इसके अजर-पत्र पर चढ़ जीवन जीतेगा महाप्रलय ?
कह, जीवन में क्षमता है यदि तो तम से हो प्रकाश निर्भय !
मैं भी फिर नित निर्भय खोजूँ शाश्वत प्रकाश अक्षय जीवन,
निर्भय गाऊँ, मैं शान्त करूँ इस मृत्युभित जग का क्रन्दन !
है नये जन्म का नाम मृत्यु, है नई शक्ति का नाम ह्रास, --
है आदि अन्त का, अन्त आदि का यों सब दिन क्रम-बद्ध ग्रास !
प्यारे प्रयाग ! तेरे उर में ही था यह अन्तर-स्वर निकला,
था कंठ खुला, काँटा निकला, स्वर शुद्ध हुआ, कवि-हृदय मिला !
कवि-हृदय मिला, मन-मुकुल खिला, अर्पित है जो श्री चरणों में,
पर हो न सकेगा अभिनन्दन मेरे इन कृत्रिम वर्णों में !
ये कृत्रिम, तू सत्-पृकृति-रूप, हे पूर्ण-पुरातन तीर्थराज !
क्षमता दे, जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज !
दे शुभाशीस, हे पुण्यधाम !, वाणी कल्याणी हो प्रकाम--
स्वीकृत हो अब श्री चरणों में बन्दी का यह अन्तिम प्रणाम !
तेरे चरणों में शीश धरे आये होंगे कितने नरेन्द्र,
कितने ही आये, चले गये, कुछ दिन रह अभिमानी महेन्द्र !
मैं भी नरेन्द्र, पर इन्द्र नहीं, तेरा बन्दी हूँ, तीर्थराज !
क्षमता दे जिससे कर पाऊँ तेरा अन्न्त गुण-गान आज !!