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&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''निडर औरतें<br>
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&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक: '''आयो घोष बड़ो व्यापारी<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[शुभा]]  
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[देवेन्द्र आर्य]]  
 
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हम औरतें चिताओं को आग नहीं देतीं
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आयो घोष बड़ो व्यापारी
क़ब्रों पर मिट्टी नहीं देतीं
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पोछ ले गयो नींद हमारी
हम औरतें मरे हुओं को भी
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बहुत समय जीवित देखती हैं
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सच तो ये है हम मौत को
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कभी जमूरा कभी मदारी
लगभग झूठ मानती हैं
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इसको कहते हैं व्यापारी
और बिछुड़ने का दुख हम
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ख़ूब समझती हैं
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और बिछुड़े हुओं को हम
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खूब याद रखती हैं
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वे लगभग सशरीर हमारी
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दुनियाओं में चलते-फिरते हैं
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हम जन्म देती हैं और इसको
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रंग गई मन की अंगिया-चूनर
कोई इतना बड़ा काम नहीं मानतीं
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देह ने जब मारी पिचकारी
कि हमारी पूजा की जाए
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ज़ाहिर है जीवन को लेकर हम
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अपना उल्लू सीधा हो बस
काफ़ी व्यस्त रहती हैं
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कैसा रिश्ता कैसी यारी
और हमारा रोना-गाना
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बस चलता ही रहता है
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हम न तो मोक्ष की इच्छा कर पाती हैं
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आप नशे पर न्यौछावर हो
न बैरागी हो पाती हैं
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मैं अब जाऊँ किस पर वारी
हम नरक का द्वार कही जाती हैं
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सारे ऋषि-मुनि, पंडित-ज्ञानी
+
बिकते बिकते बिकते बिकते
साधु और संत नरक से डरते हैं
+
रुह हो गई है सरकारी
  
और हम नरक में जन्म देती हैं
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अब जब टूट गई ज़ंजीरें
इस तरह यह जीवन चलता है
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क्या तुम जीते क्या मैं हारी
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भूख हिकारत और गरीबी
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किसको कहते हैं खुद्दारी?
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दुनिया की सुंदरतम् कविता
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सोंधी रोटी, दाल बघारी
 
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23:12, 15 जून 2009 का अवतरण

 सप्ताह की कविता

  शीर्षक: आयो घोष बड़ो व्यापारी
  रचनाकार: देवेन्द्र आर्य

आयो घोष बड़ो व्यापारी
पोछ ले गयो नींद हमारी

कभी जमूरा कभी मदारी
इसको कहते हैं व्यापारी

रंग गई मन की अंगिया-चूनर
देह ने जब मारी पिचकारी

अपना उल्लू सीधा हो बस
कैसा रिश्ता कैसी यारी

आप नशे पर न्यौछावर हो
मैं अब जाऊँ किस पर वारी

बिकते बिकते बिकते बिकते
रुह हो गई है सरकारी

अब जब टूट गई ज़ंजीरें
क्या तुम जीते क्या मैं हारी

भूख हिकारत और गरीबी
किसको कहते हैं खुद्दारी?

दुनिया की सुंदरतम् कविता
सोंधी रोटी, दाल बघारी