"मधुशाला / भाग ७ / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) छो |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | [[Category:हरिवंशराय बच्चन]] | |
[[Category:कविताएँ]] | [[Category:कविताएँ]] | ||
− | [[Category: | + | [[Category:रुबाई]] |
− | + | {{KKSandarbh | |
− | + | |लेखक=हरिवंशराय बच्चन | |
+ | |पुस्तक=मधुशाला | ||
+ | |प्रकाशक= | ||
+ | |वर्ष=1935 | ||
+ | |पृष्ठ= | ||
+ | }} | ||
वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,<br> | वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,<br> | ||
− | जिसमें मैं बिंबित- | + | जिसमें मैं बिंबित-प्रतिबिंबत प्रतिपल, वह मेरा प्याला,<br> |
मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है,<br> | मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है,<br> | ||
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।<br><br> | भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।<br><br> | ||
पंक्ति 15: | पंक्ति 20: | ||
मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।<br><br> | मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।<br><br> | ||
− | मदिरालय के द्वार | + | मदिरालय के द्वार ठोकता किस्मत का छंछा प्याला,<br> |
गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,<br> | गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,<br> | ||
कितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया!<br> | कितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया!<br> | ||
पंक्ति 21: | पंक्ति 26: | ||
कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला,<br> | कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला,<br> | ||
− | + | कहाँ गया स्वपिनल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला!<br> | |
पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?<br> | पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?<br> | ||
फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४।<br><br> | फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४।<br><br> | ||
पंक्ति 27: | पंक्ति 32: | ||
अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला, <br> | अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला, <br> | ||
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,<br> | अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,<br> | ||
− | फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही | + | फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -<br> |
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५।<br><br> | अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५।<br><br> | ||
'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, 'हाला'<br> | 'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, 'हाला'<br> | ||
'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया 'प्याला',<br> | 'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया 'प्याला',<br> | ||
− | क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी | + | क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंडित जी<br> |
'मय-महिफल' अब अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६।<br><br> | 'मय-महिफल' अब अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६।<br><br> | ||
पंक्ति 46: | पंक्ति 51: | ||
जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला,<br> | जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला,<br> | ||
− | जिस कर को | + | जिस कर को छू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला,<br> |
आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना हो,<br> | आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना हो,<br> | ||
पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९।<br><br> | पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९।<br><br> | ||
पंक्ति 58: | पंक्ति 63: | ||
मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,<br> | मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,<br> | ||
मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा,<br> | मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा,<br> | ||
− | जिसकी जैसी | + | जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१।<br><br> |
यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला,<br> | यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला,<br> | ||
पंक्ति 80: | पंक्ति 85: | ||
विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।<br><br> | विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।<br><br> | ||
− | + | ==पिरिशष्ट से== | |
स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,<br> | स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,<br> | ||
पंक्ति 88: | पंक्ति 93: | ||
मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,<br> | मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,<br> | ||
− | मेरे तन के लोहू में है | + | मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,<br> |
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,<br> | पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,<br> | ||
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।<br><br> | मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।<br><br> |
01:15, 1 दिसम्बर 2006 का अवतरण
रचना संदर्भ | रचनाकार: | हरिवंशराय बच्चन | |
पुस्तक: | मधुशाला | प्रकाशक: | |
वर्ष: | 1935 | पृष्ठ संख्या: |
वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,
जिसमें मैं बिंबित-प्रतिबिंबत प्रतिपल, वह मेरा प्याला,
मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है,
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।
मतवालापन हाला से ले मैंने तज दी है हाला,
पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला,
साकी से मिल, साकी में मिल अपनापन मैं भूल गया,
मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।
मदिरालय के द्वार ठोकता किस्मत का छंछा प्याला,
गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,
कितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया!
बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३।
कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला,
कहाँ गया स्वपिनल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला!
पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?
फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४।
अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५।
'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, 'हाला'
'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया 'प्याला',
क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंडित जी
'मय-महिफल' अब अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६।
कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला,
कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला,
कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी,
फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला।।१२७।
जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला,
जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला,
जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है,
जितना ही जो रिसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८।
जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला,
जिस कर को छू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला,
आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना हो,
पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९।
हर जिहवा पर देखी जाएगी मेरी मादक हाला
हर कर में देखा जाएगा मेरे साकी का प्याला
हर घर में चर्चा अब होगी मेरे मधुविक्रेता की
हर आंगन में गमक उठेगी मेरी सुरिभत मधुशाला।।१३०।
मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला,
मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,
मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा,
जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१।
यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला,
यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला,
किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही,
नहीं-नहीं किव का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२।
कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला,
कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला!
पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा,
कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३।
विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला
यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला,
शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई,
जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४।
बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला,
किलत कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,
मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,
विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।
पिरिशष्ट से
स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला।
मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।
बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही
और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।
पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।