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बेंदी / जगदीश गुप्त

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उगी गोरे भला पर बेंदी!
एक छोटे दारे दायरे में लालिमा इतनी बिथुरती,
बांध किसने दी।
नहा केसर के सरोवर में,
ज्यों गुलाबी चांद उग आया।
अनछुई-सी पांखुरी पाँखुरी रक्ताभ पाटल की,
रक्तिमा जिसकी, शिराओं के
सिहरते वेग में,
झनकार बनकर खो गई।
भुनहरे भुरहरे के लहकते रवि की
विभा ज्यों फूट निकली,
चीरती-सी कोर हलके पीत बादल की,
अलक्तक की बूंद
झिलमिल : स्फटिक के तल में।
 
</poem>
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