"गूंजे कूक प्यार की / प्रेमशंकर रघुवंशी" के अवतरणों में अंतर
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जिस बरगद की छाँव तले रहता था मेरा गाँव। | जिस बरगद की छाँव तले रहता था मेरा गाँव। |
11:03, 28 मार्च 2011 के समय का अवतरण
जिस बरगद की छाँव तले रहता था मेरा गाँव।
वह बरगद खुद घूम रहा अब नंगे नंगे पाँव।।
रात-रात भर इस बरगद से किस्से सुनते थे
गली द्वार बाड़े के बिरवे जिनकी गुनते थे
बाखर बाखर कहीं नहीं थी कोई भी खाई
पशु-पक्षी मौसम जड़ चेतन थे भाई-भाई
किंतु अचानक उलटी-पलटी संबंधों की नाव।
इस बरगद का हाल देखकर अम्मा रोती है
भूख खेत में खलिहानों में अब भी सोती है
नहा रही कीचड़ पानी से घर की मर्यादा
चक्रवात चाहे जब उठते पहले से ज़्यादा
हुए बिवाई से घायल अब चंचलता के पाँव।
भौजी अब ममता के बदले देती है गाली
दूर-दूर तक नहीं दीखती मन में हरियाली
चौपालों से उठीं बरोसी आँगन से पानी
दूर-दूर तक नहीं सुनाती कबिरा की बानी
कथनी करनी न्यारे-न्यारे चलते ठांव-कुठांव।
पंचायत पर पंच परोसे शासन भी वादे
राजनीति ने बड़े-बड़े कर, कर डाले आधे
शहरों से पुरवा का बढ़ता सम्मोहन दूना
मुखिया मुख ढांके विवेक पर लगा रहे चूना
लरिकाई की प्रीत न रच पाती अब मीठे दाँव।
धीरे-धीरे सीलन घर के घर खा जाती है
आपस में मिलने की गर्मी असर न पाती है
समा रहा दलदल के जबड़े में पूरा खेड़ा
सब मिल अब ऊँची धरती पर रख लो ये बेड़ा
गूँजे कूक प्यार की घर-घर रहें न काँवकाँव।