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− | भूतियों का दिगंत छबि जाल, | + | आज कहां वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल? |
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− | स्वर्ग की सुषमा जब साभार | + | राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार? |
− | धरा पर करती थी अभिसार! | + | ::स्वर्ग की सुषमा जब साभार |
+ | ::धरा पर करती थी अभिसार! | ||
− | प्रसूनों के शाश्वत शृंगार, | + | ::प्रसूनों के शाश्वत-शृंगार, |
− | (स्वर्ण भृंगों के गंध विहार) | + | ::(स्वर्ण-भृंगों के गंध-विहार) |
− | गूंज उठते थे बारंबार, | + | ::गूंज उठते थे बारंबार, |
− | सृष्टि के प्रथमोद्गार! | + | :::सृष्टि के प्रथमोद्गार! |
− | नग्न सुंदरता थी सुकुमार, | + | ::नग्न-सुंदरता थी सुकुमार, |
− | ॠध्दि | + | :::ॠध्दि औ’ सिध्दि अपार! |
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अये, विश्व का स्वर्ण स्वप्न, संसृति का प्रथम प्रभात, | अये, विश्व का स्वर्ण स्वप्न, संसृति का प्रथम प्रभात, | ||
कहां वह सत्य, वेद विख्यात? | कहां वह सत्य, वेद विख्यात? | ||
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निखिल उत्थान, पतन! | निखिल उत्थान, पतन! | ||
अहे वासुकि सहस्र फन! | अहे वासुकि सहस्र फन! | ||
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+ | '''रचनाकाल: जनवरी १९१८''' | ||
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22:31, 22 दिसम्बर 2009 का अवतरण
(१)
आज कहां वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
भूतियों का दिगंत-छबि-जाल,
ज्योति-चुम्बित जगती का भाल?
राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार?
स्वर्ग की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार!
प्रसूनों के शाश्वत-शृंगार,
(स्वर्ण-भृंगों के गंध-विहार)
गूंज उठते थे बारंबार,
सृष्टि के प्रथमोद्गार!
नग्न-सुंदरता थी सुकुमार,
ॠध्दि औ’ सिध्दि अपार!
(२)
अये, विश्व का स्वर्ण स्वप्न, संसृति का प्रथम प्रभात,
कहां वह सत्य, वेद विख्यात?
दुरित, दु:ख दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित जरा मरण भ्रू-पात।
अहे निष्ठुर परिवर्तन!
तुम्हारा ही तांडव नर्तन
विश्व का करुण विवर्तन!
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान, पतन!
अहे वासुकि सहस्र फन!
रचनाकाल: जनवरी १९१८