भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग / भाग 2" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह= कुरुक्षेत्र / रामधारी सिंह 'दिनकर'
 
|संग्रह= कुरुक्षेत्र / रामधारी सिंह 'दिनकर'
 
}}
 
}}
 +
 +
 +
[[कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग  /  भाग  1|<< पिछला भाग]] | [[कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग  /  भाग  3|अगला भाग >>]]
 +
  
 
तुम विषण्ण हो समझ<br>
 
तुम विषण्ण हो समझ<br>
पंक्ति 59: पंक्ति 63:
 
बोलो धर्मराज, शोषित वे<br>
 
बोलो धर्मराज, शोषित वे<br>
 
जियें या कि मिट जायें? <br><br>
 
जियें या कि मिट जायें? <br><br>
 +
 +
 +
[[कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग  /  भाग  1|<< पिछला भाग]] | [[कुरुक्षेत्र / तृतीय सर्ग  /  भाग  3|अगला भाग >>]]

19:42, 21 अगस्त 2008 के समय का अवतरण


<< पिछला भाग | अगला भाग >>


तुम विषण्ण हो समझ
हुआ जगदाह तुम्हारे कर से।
सोचो तो, क्या अग्नि समर की
बरसी थी अम्बर से?

अथवा अकस्मात् मिट्टी से
फूटी थी यह ज्वाला?
या मंत्रों के बल जनमी
थी यह शिखा कराला?

कुरुक्षेत्र के पुर्व नहीं क्या
समर लगा था चलने?
प्रतिहिंसा का दीप भयानक
हृदय-हृदय में बलने?

शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का
जब वर्जन करती है,
तभी जान लो, किसी समर का
वह सर्जन करती है।

शान्ति नहीं तब तक, जब तक
सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को अधिक हो,
नहीं किसी को कम हो।

ऐसी शान्ति राज्य करती है
तन पर नहीं, हृदय पर,
नर के ऊँचे विश्वासों पर,
श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर।

न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है,
जबतक न्याय न आता,
जैसा भी हो, महल शान्ति का
सुदृढ नहीं रह पाता।

कृत्रिम शान्ति सशंक आप
अपने से ही डरती है,
खड्ग छोड़ विश्वास किसी का
कभी नहीं करती है।

और जिन्हेँ इस शान्ति-व्यवस्था
में सिख-भोग सुलभ है,
उनके लिए शान्ति ही जीवन-
सार, सिद्धि दुर्लभ है।

पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर,
शोणित पीकर तन का,
जीती है यह शान्ति, दाह
समझो कुछ उनके मन का।

सत्व माँगने से न मिले,
संघात पाप हो जायें,
बोलो धर्मराज, शोषित वे
जियें या कि मिट जायें?


<< पिछला भाग | अगला भाग >>